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महाप्रयाण भाग-13 "सैन्यसमुद्र"

11/12/2016

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इन्हीं तैयारियों में छः माह बीत गए

आज चतुर्दशी थी और परसों मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा अर्थात परसों का सूर्य रणभेरियों के नाद के साथ उदित होने वाला था। कल भोर से ही सेना को अपने-अपने स्थान पर व्यवस्थित करना था जिसका उत्तरदायित्व उपसेनापति कुशाग्र पर था इसीलिए वह संध्या के इस समय सेनापति के द्वार पर अपना अश्व खड़ा कर भीतर की ओर प्रविष्ट हुआ।

भीतरी द्वार पर खड़े सेवक ने टोका, “स्वामी संध्या वंदन कर रहे हैं।”
“परसों से युद्ध होने वाला है, यह राष्ट्र का विषय है” , कुशाग्र ने कुछ  कठोरता से कहा। सेवक ने सिर झुका लिया।

कुशाग्र ने घर के भीतर प्रवेश किया। सीधा चलता हुआ वह बीच के चौक तक पहुंचा । निवास के बीचों-बीच उस चौक में एक अखाड़ा बनाया हुआ था , जिसमें लाल मिट्टी डली हुई थी और वहां सेनापति रुद्रदेव एक सबल पेड़ की शाखाओं जैसे अपने भुजदंडों से मुग्दल चला रहे थे । उनकी पीठ कुशाग्र की ओर थी केवल कटिवस्त्र में तो उन्हें पहली बार देखा था , वे सदैव स्वयं को या तो पूर्ण वस्त्रों में ढंककर रखते थे या कवच से। उनके शरीर की ऊंचाई और चौड़ाई के आगे विशाल मुग्दल, जिसे बड़े-बड़े मल्ल भी कठिनता से चलाते थे, खिलौना लग रहा था।
मुग्दल चलाते हुए उनका एक-एक स्नायु शक्तिपुंज लग रहा था । शरीर की प्रत्येक मांसपेशी को अलग-अलग देखा जा सकता था । उनके शरीर पर चेहरे से कहीं अधिक घाव थे । ईर्ष्या से कुशाग्र का सारा उत्साह जाता रहा।

“प्रणाम सेनापति” , सेनापति एक क्षण ठिठककर पलटे और कुशाग्र को देखकर चेहरे पर मुस्कान लाते हुए बोले, “अरे कुशाग्र तुम कब आए”

अपने मुगदल को उन्होंने अपने विशाल कंधे पर रख लिया और दूसरे हाथ की मुट्ठी कमर पर रखकर खड़े हो गए। न श्वास तेज चल रहा था, न ही चेहरे पर कठोर व्यायाम की थकन थी । हां, पूरा शरीर पसीने से अवश्य लथपथ था । वे साक्षात रुद्र का अवतार लग रहे थे।

“ किंतु सेवक तो कह रहा था कि आप संध्या वंदन कर रहे हैं।”
सेनापति मुस्कुराए और अपना व्यायाम जारी रखते हुए बोले, “मेरा संध्या वंदन भी यही है और मेरा प्रातः वंदन भी, ये शरीर ही मेरा आराध्य भी है और मेरी आराधना भी।”

मुगदल चलाते हुए बोलने पर भी उनका श्वास नहीं फूल रहा था । शरीर को इतना परिपक्व बनाने के लिए कितने लंबे समय के अभ्यास की आवश्यकता है, कुशाग्र की कल्पना समय की इस दूरी को पाट नहीं सकी।
“मैं सेना के व्यवस्थापन से संबंधित कुछ चर्चा करने आया था। क्या हम बैठकर चर्चा कर सकते हैं ?”

यह समय तो मेरा व्यायाम करने का ही है, बैठने का नहीं। हाँ, यदि चर्चा की बात है तो वो यहीं की जा सकती है, यदि तुम्हें आपत्ति न हो तो” , रुद्रदेव अब एक हाथ से दंड लगा रहे थे।

“ नहीं मुझे क्या आपत्ति हो सकती है, यदि आपको नहीं है तो” , कुशाग्र एकदम सकपका कर बोला ।

फिर लंबे समय तक दोनों ने ऐसे ही सेना के उपयोग के संबंध में वार्तालाप किया। उसके बाद कुशाग्र वहां से निकल गया। रुद्रदेव अभी भी व्यायाम ही कर रहे थे।

रात भर की मशक्कत के बाद अगले दिन प्रातः सेनापति कुशाग्र, विराटनगर के मुख्य दुर्ग की प्राचीर पर खड़ा होकर सेना के उस विशाल सागर को निहार रहा था,  जो पूर्व से पश्चिम की ओर फैली हुई दुर्ग की दीवार के साथ बाहर की ओर के वितस्ता के विशाल मैदान में अपने पूरे साज-श्रृंगार के साथ खड़ी थी।

कुशाग्र के  दाँये हाथ में पकड़ा हुआ विराटनगर का सूर्य चिन्ह वाला भगवा ध्वज बहुत तेज फड़फड़ा रहा था। दूर सेना के पूर्वी कोने पर उसे धूल का एक बिंदु दिखाई दे रहा था , जो धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था अर्थात सेनापति रुद्रदेव वहां पहुंच चुके थे और ठीक उनके पीछे की ओर वितस्ता के उस विशाल मैदान में से लाल रंग का सूर्य उदित हो रहा था। सेनापति रुद्रदेव आगे अपने सफेद अश्व पर और उनके पीछे दाँई व बाँयी ओर वाम व दक्षिण सेना प्रमुख तथा उनके पीछे दाँई व बाँयी ओर धनुष सेना व अश्वसेना प्रमुख ऐसे पिरामिड के आकार में सेना के निरीक्षण के लिए पूर्व से पश्चिम की ओर बढ़ रहे थे ।
उस एक लाख की विशालकाय सेना का निरीक्षण करना भी बहुत समय लेने वाला कार्य था इसलिए सेनापति रुद्रदेव अपनी तीक्ष्ण दृष्टि से सेना के किनारे-किनारे बहुत तेज अश्व दौड़ाते हुए अवलोकन कर रहे थे। वह छोटा सा धूल का बिंदु उन पांचो अश्वों की टापों से बना था , जो पश्चिमी छोर तक आते-आते धूल के बादल में बदल गया था।

 सेनापति रुद्रदेव , सेना के पश्चिमी छोर पर आकर रुक गए और फिर पीछे मुड़कर उन्होंने एक बार और उस सैन्यसमुद्र को देखा और संतुष्टिपूर्वक गर्दन हिलाई। संकेत पाकर पीछे खड़े वामसेना प्रमुख ने अपने हाथ में पकड़ा हुआ विराटनगर का भगवा ध्वज ऊंचा कर दिया। वैसे ही दुर्ग की प्राचीर से उप सेनापति ने अपना ध्वज ऊंचा किया और वैसे ही सेना की प्रत्येक वाहिनी के नेतृत्व ने अपना ध्वज ऊंचा किया , सब कुछ ठीक था ।

तभी एक अश्व वाहक दुर्ग के मुख्य द्वार से बाहर निकलकर सेनापति के पास पहुंचा।
“सेनापति प्रणाम! आपको महाराज ने तत्काल स्मरण किया है , हरितभूमि राज्य से कोई संदेशवाहक आया है।”
 सेनापति के मुख पर एक रहस्यमई मुस्कान फैल गई। ठीक है चलो, सेनापति उस अश्व वाहक के साथ चल पड़े।

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आगामी भाग में पढ़ें- कौन था वो सन्देश वाहक? क्या सन्देश लाया था , हरितभूमि राज्य से ? क्या अर्थ था सेनापति की उस रहस्यमई मुस्कान का ?
जानने के लिये पढ़ते रहें “महाप्रयाण”

अपने सुझाव व विचारों से ऐसे ही हमें अवगत कराते रहें और पढ़ते रहें। आगामी भाग दिनांक 14.12.2016 को प्रकाशित किया जाएगा।
अधिक अपडेट के लिए फॉर्म साइन अप करें।
धन्यवाद
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