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महाप्रयाण भाग-19 "वितस्ता"

8/1/2017

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सेनापति के निर्देश से सैनिकों ने उन लकड़ी के विशाल पुलों को थकाकर नदी में डाला और लकड़ी के डंडों से टिके ऊपरी आधे भाग को उस और गिराया । वे भाग बहुत तेज छपाक की आवाज के साथ नदी के तल से टकराए और दोनों और बहुत ऊंचाई तक पानी उछालकर, लहरें उत्पन्न करते हुए लगभग उस ओर जाकर टिक गए । कुछ टूट गए परंतु फिर भी पार करने योग्य रहे । सेना हाहाकार करती हुई उन पुलों पर दौड़ चली। सबसे आगे सेनापति रुद्रदेव अपने अश्व पर दौड़े। लौह कवच में जड़े हुए उनके शरीर में से केवल लाल-लाल धधकती हुई आंखें ही दिखाई दे रही थीं।

        वितस्ता का यह भाग जहां से सेना पार कर रही थी , नदी का लगभग एक किलोमीटर चौड़ा किंतु सबसे संकरा पाट था और यही एक मात्र स्थान था , जहां से नदी को पार किया जा सकता था। यह बात रुद्रदेव भी जानते थे और शत्रु पक्ष भी। युद्ध के यह सबसे प्रारंभिक क्षण ही सबसे कठिन थे , यदि इन से सकुशल निकल गए तो समझो आधा युद्ध जीत लिया ।

          रुद्रदेव एक पुल पर बीचों-बीच अपने अश्व को रोककर चीख रहे थे , “शीघ्रता करो , यह शक्ति दिखाने का नहीं चपलता दिखाने का समय है” तभी रुद्रदेव को एक काली विशाल गोल परछाई अपने निकट पुल पर दिखाई दी जो निरंतर बड़ी होती जा रही थी। उन्होंने सिर उठाकर ऊपर की ओर देखा , एक विशाल गोलाकार पत्थर आकाश से सीधा उन की ओर गिर रहा था शत्रु की विशाल गुलेलों ने अपना काम शुरु कर दिया था ।

    उनके हिल भी पाने से पूर्व वह पत्थर उनके ठीक निकट पुल पर महाविनाश की तरह आ गिरा। पुल का एक भाग टूट गया , एक सैनिक उस पत्थर के नीचे आ गया , उसके अस्थि, मज्जा और मांस के लोथड़े फट के आसपास कुछ दूर तक उड़ गए। पुल टूटने से कई सैनिक नदी में जा गिरे और उस पत्थर से नदी में जो लहर उत्पन्न हुई , उससे आसपास के पुल भी लहरा गए। स्वयं रुद्रदेव का पुल भी हिलने लगा पर वे बड़ी कठिनाई से अपने अश्व को स्थिर रख पाए । जब तक वे लोग संभल पाते , एक और विशाल पत्थर उनसे कुछ दूरी पर आ गिरा , इसने भी वही हाल किया ।

रुद्रदेव लगातार चीख रहे थे , “भागो शीघ्र और उस ओर पहुंचो।”

 कुछ सैनिकों के नदी में गिरते ही मगरमच्छों ने उन पर आक्रमण कर दिया । कुछ को वे खींचकर नदी की गहराई में ले गए, कुछ सैनिकों ने अपनी तलवारों से उन मगरमच्छों को काट दिया , तीरंदाजों ने उनको निशाना बनाया , अनेक मगरमच्छों के पेट में सैकड़ों तीर जा घुसे ।

रुद्रदेव फिर चिल्लाए , “हमें मगरमच्छों से युद्ध नहीं करना है , शीघ्रता से नदी पार करो ।”

अब तो आगे पीछे चारों ओर आकाश से छोटे-बड़े पत्थरों की बौछार होने लगी । चारों और नदी में त्राहि-त्राहि मच गई । अनेक पुल पूरी तरह टूट गए,  कुछ टूटकर लटक गए । हजारों सैनिक नदी में आ गिरे , रक्त-मांस के लोथड़े और सैनिकों के कटे-फटे शरीरों से नदी भरने लगी। बहुत नुकसान हो रहा था , तेजी से सैनिक नदी पार करके उस ओर पहुंच रहे थे । रुद्रदेव भी अपने अश्व को दौड़ाकर उस ओर पहुंच गए ।  कुछ सैनिक तैरकर भी पहुंच गए।

   अब नदी के उस तट पर सैनिकों का जमघट लगने लगा था। रुद्रदेव का अनुमान था कि एक बार में लगभग बीस हज़ार सैनिक नदी पार कर लेंगे किंतु यह संख्या उनके अनुमान से बहुत कम थी । आकाश से पत्थरों का गिरना , नदी में सैनिकों का मरना और सैनिकों का नदी पार करना , लगातार जारी था।  मृत्यु सामने देखकर भी विराट नगर के सैनिक निरंतर नदी पार किए जा रहे थे, यह एक आश्चर्य ही था परंतु सेनापति का कार्य ही भावनाओं के आवेग को मृत्यु के भय से प्रबल बनाना होता है , जिसे रुद्रदेव से अच्छा कौन कर सकता था?

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आगामी भाग में पढ़ें- सेना की इतनी भयंकर हानि के बाद क्या पराजित हो जाएंगे सेनापति रुद्रदेव।
जानने के लिये पढ़ते रहें “महाप्रयाण”

आपके निरंतर मिलते प्रेम से हम अभिभूत हैं आपके सुझावों की हमें आतुरता से प्रतीक्षा रहती है, इनसे हमें अवश्य अवगत कराते रहें।
आगामी भाग दिनांक 11.01.2017 को प्रकाशित किया जाएगा।
अधिक अपडेट के लिए फॉर्म अवश्य साइन अप करें।
धन्यवाद
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