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महाप्रयाण भाग-23 "अवध्य"

12/2/2017

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षटकुल की शेष बची-कुची सेना अपने प्राण बचाकर भागने लगी। षटकुल के कुछ सैनिक उन विशाल गुलेलों को आग लगाने लगे , जिससे वह किसी के काम ना आ सके ।

रुद्रदेव ने अपने धनुर्धरों को आज्ञा की, “ एक भी गुलेल नष्ट नहीं होना चाहिए, सबको अपने अधिकार में लो और इनसे नगर के मुख्य द्वार को तोड़ दो”
धनुर्धर अपने काम में लग गए।

कुशाग्र ने आक्रमण कर सबसे पीछे खड़े हुए षटकुल के सेनापति को सर्वप्रथम बंदी बना लिया था। नगर के मुख्य द्वार के बाहर मैदान में वह घुटनों पर , रुद्रदेव के चरणों में बैठा अपने प्राणों की भीख मांग रहा था ।

सेनापति रुद्रदेव की आंखों से अंगारे बरस रहे थे ।
रह-रहकर चैतन्य का वीभत्स शव उनकी दृष्टि के सामने नाच रहा था, हजारों सैनिकों के मृत शरीरों को गिद्ध नोचते हुए दिख रहे थे।

ना जाने कब उन्होंने विदारक को म्यान से खींच लिया, कुशाग्र व अन्य सैनिक पीछे हट गए।
रुद्रदेव ने नीचे बैठे हुए उस सेनापति के कंधे और गर्दन के बीच में से सीधे विदारक को घुसा दिया, जो उसके हृदय और आँतड़ियों को फाड़ती हुई नीचे गुदा द्वार से बाहर निकल गई और फिर उसे वापस बाहर खींच लिया।
भल भल रक्त बाहर उबलने लगा और कुछ क्षणों तक बैठा हुआ उसका शरीर , निश्चेष्ट होकर लुढ़क गया ।

इधर सैनिकों ने उन गुलेलों की सहायता से नगर के मुख्य द्वार को तोड़ दिया। रुद्रदेव व सेना नगर के प्रमुख मार्गों पर अश्व लेकर दौड़ते हुए , सीधे राजमहल तक पहुंचे ।
शेष सैनिक नगर में इधर-उधर फ़ैल गए और पूरे नगर को विराट नगर के सैनिकों ने अपने अधिकार में ले लिया।

अपनी नंगी तलवार लेकर राजमहल के विशाल गलियारे में होते हुए, रुद्रदेव राजसभा में पहुंच गए।
कुशाग्र व अन्य सैनिक भी उनके पीछे उनके साथ ही चल रहे थे । राजसभा में सिंहासन रिक्त था और सभी अधिकारी हाथ जोड़कर घुटनों पर बैठे हुए, उस महाकाल का अवतार लग रहे सेनापति से प्राणदान मांग रहे थे।

रुद्रदेव ने उनकी ओर ध्यान ही नहीं दिया और आज्ञा की ,“शतादित्य जहां कहीं हो शीघ्र पकड़ कर लाओ”

रुद्रदेव का पूरा शरीर रक्तरंजित था और उनके सिर पर खून सवार था । वे जहां भी चल रहे थे , उनके शरीर का रक्त वहां टपक रहा था और रक्त में सने उनके पदचिन्ह वहां बनते जा रहे थे । चेहरा भयानक लग रहा था , अपने सैनिकों और मातृभूमि के प्रतिशोध की भावना चरम पर थी, आंखों से अग्नि बरस रही थी, कोई उनके सामने देखने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। धर्मग्राम में कटे और जले हुए बच्चों के शव मस्तिष्क को बार-बार झकझोर दे रहे थे।

कुछ ही समय में सैनिक राजा शतादित्य , उनकी रानी और पुत्र को पकड़ लाए।
“महाराज ये एक गुप्त गुफा से भागने का प्रयत्न कर रहे थे” उन्हें धक्का देकर सेनापति के चरणों में बिठा दिया गया।

“शतादित्य को बंदी बना लो, यह विराटनगर का अपराधी है, इसे महाराज दंड देंगे और रानी को रनिवास में भिजवा दो।”

आज्ञा का पालन हुआ । शतादित्य का चौदह वर्षीय पुत्र वहीं था , उसको दंड देने के लिए रुद्रदेव ने अपनी रक्त से सनी विदारक उठाई। उपसेनापति कुशाग्र कुछ बोलने को हुआ परंतु रुद्रदेव के अवतार को देखकर उसने अपने होंठ भींच लिए।

रुद्रदेव प्रहार करने ही वाले थे कि राजसभा में आवाज गूंजी, “ ठहरो sssss रूद्रदेव”

सेनापति को नाम से पुकारने वाला यह कौन आ गया?


“ महाराज आप ! ”
महाराज कीर्तिवर्धन भीतर प्रवेश कर रहे थे । रुद्रदेव का हाथ अपने स्थान पर ही रुक गया ।

“हाँ , सेना की द्वितीय पंक्ति नष्ट होने की सूचना मिलते ही हम अपनी सेना लेकर चल पड़े थे कि तुम्हें संभवतया सहायता की आवश्यकता हो किंतु यहां पहुंचकर क्या देख रहे हैं कि तुम बदले की भावना से दग्ध एक निरपराध बालक की हत्या कर रहे हो।”

“ हत्या नहीं वध महाराज । शत्रु पक्ष के दस वर्ष से बड़े प्रत्येक पुरुष का वध करना नीतिसंगत है ।”

“वध तब होता है, जब शत्रु भी शस्त्र उठाने में समर्थ हो। अतः यह बालक अवध्य है क्योंकि ना तो इस बालक को इसके पिता के कृत्यों की जानकारी है और न ही यह अपने पिता के धूर्त कार्यों में सहभागी है इसलिए यह निरपराध है, इसे दंडित नहीं किया जा सकता।”

“कंटक वृक्ष के किसी भी भाग को छोड़ने से वह पुनः उगकर पैरों में चुभने के लिए तत्पर हो जाएगा ।”

”हम भविष्य नहीं जानते रुद्रदेव , किंतु नीति जानते हैं और नीति यही कहती है कि यह बालक दंड का भागी नहीं है। तत्काल इस बालक को और उसकी माता को मुक्त कर दिया जाए ” महाराज ने आज्ञा की।

रुद्रदेव सिर झुकाकर पीछे हट गए और तलवार अपनी म्यान में रख ली। बालक पूरे वार्तालाप को उदासीनतापूर्वक सुन रहा था। मृत्यु सिर पर खड़ी होने पर भी उसकी आंखों में भय नहीं था । सैनिक उसे उठाकर ले गए और मुक्त कर दिया ।

कुछ दिन षटकुल में रुककर महाराज ने एक विश्वस्त को षटकुल का प्रबंधन सौंप दिया और फिर वे सभी विराटनगर लौट गए ।

वापसी में रुद्रदेव और कुशाग्र अश्वों पर साथ चल रहे थे ।
“तुम्हें तो दिन के दूसरे प्रहर तक पहुंच जाना चाहिए था फिर संध्या कैसे हो गई” रुद्रदेव ने पूछा।

“उस मार्ग पर हमें भी अवरोध का सामना करना पड़ा । शतदित्य ने उस ओर भी अपनी रणनीति के अंतर्गत एक टुकड़ी तैयार कर रखी थी , जो दोपहर तक हमारी ओर से किसी सेना के पहुंचने की प्रतीक्षा करती और किसी के न पहुंचने पर फिर षटकुल के लिए रवाना होती और षटकुल के उस अश्वसेना के आक्रमण के बाद एक अंतिम आक्रमण और होता जो कि विराटनगर की सेना को पूरी तरह समाप्त कर देता। बस इसी टुक़डी को समाप्त करने में हमें थोड़ा समय लग गया।”
कुशाग्र कुछ समय के लिए रुका फिर बोला ,
“किंतु शतादित्य को यह अनुमान नहीं था कि आप सेना का एक चौथाई भाग ही बांध वाले रास्ते से भेज देंगे”

“शत्रु को हतप्रभ कर देना ही आधी विजय है कुशाग्र! किंतु तुम्हारे इस विलंब ने हमारे हजारों साथियों के प्राण हर लिए।” रुद्रदेव ने एक ठंडा श्वास छोड़ते हुए कहा।

“हां लेकिन मैं समय पर पहुंचा तो सही, यदि मैं तब भी न पहुंचता तो पूरी सेना ही समाप्त हो जाती।” रुद्रदेव ने एक बार घूरकर उसे देखा फिर दोनों शांत हो गए।

इधर विराटनगर में उल्लास का वातावरण था । उनका कोई शत्रु अब जीवित न था। महाराज ने रूद्रदेव के आधा पेट भोजन की प्रतिज्ञा की पूर्णाहुती की और उनके सम्मान में पूरे विराटनगर को भोज करवाया । एक सुसज्ज नवीन रथ रुद्रदेव को भेंट किया गया और एक सर्वसुविधाओं से युक्त राजमहल सेनापति के लिए बनवाने की घोषणा की गई।
महाराज ने परिहास में सेनापति को उन भौतिक सुखों का आनंद लेने की भी आज्ञा की जिनका उन्होंने आज तक भोग नहीं किया था । चारों ओर खुशी की लहर थी , शांतिकाल आ गया था ।

इसी शांति काल में विराट नगर और रूद्रदेव के 5 वर्ष बीत गए।

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आगामी भाग में पढ़ें - क्या यह सुख-सुविधाएं रुद्रदेव को रास आई अथवा यह सब एक बंधन ही था उनके लिए और क्या हुआ 5 वर्ष के पश्चात जानने के लिए पढ़ते रहें, महाप्रयाण।
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