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वे अगले दिन प्रातः अंधेरे में ही उठ गए। अपने नित्यकर्म से निवृत होकर कहीं जाने को तैयार हो गए । कुछ देर मन में विचार चलते रहे , न जाने कौन सा विचार फिर उनके मन को भाया और उन्होंने अपने सारे राज चिन्ह यथा मुकुट , कमरबंद , बाजूबंद सीने पर लगने वाला राजकीय सूर्य चिन्ह और अपनी विदारक तक निकाल कर रख दी । राजकीय वस्त्रों को भी त्यागकर साधारण पगड़ी लगा ली और एक साधारण सी तलवार और धनुष बाण अपने शस्त्रों में से उठा लिए और एक आम नागरिक का वेष धारणकर पौ फटने से पहले ही आखेट के लिए निकल गए । वितस्ता के किनारे चलते-चलते वे सघन हरे-भरे वन्य क्षेत्र में पहुंच गए। दिन निकल चुका था किंतु बहुत कम ही सूर्यकिरणे उस सघन वन में भूमि तक पहुंच पा रही थी । उन लंबे-लंबे वृक्षों पर पक्षियों के कलरव और बंदरों ने उस वन को सजीव बना रखा था अन्यथा तो वह निर्जन ही था। निकट बहती वितस्ता, पत्थरों पर से उछलती-कूदती अपना गीत गा रही थी । दूर एक स्थान पर जहां वितस्ता ऊंचे भाग से नीचे गिरती थी , उस झरने की आवाज बढ़ती जा रही थी। रुद्रदेव उस स्थान पर पहुंचे जहां वह झरना गिरकर पहले नीचे एक तालाब के रूप में एकत्रित होता था । उन्हें आज तक जीवन में कभी इतना समय ही नहीं मिला था कि वे इस मनोरम स्थान पर कुछ समय बिता सकें । उन्होंने अपने अश्व से उतरकर उसे तालाब में से पानी पिलाया और स्वयं भी एक पत्थर पर बैठकर मुंह धोकर पानी पिया ।झरने से गिरते जल के बारीक कण वायु के साथ मिलकर हवा में यत्र-तत्र उड़ रहे थे और उन में से होकर तालाब में घुलती सूर्य की किरणें जल में स्वर्ण का आभास दे रही थी। इसे देख वे वहीं एक पत्थर पर बैठ गए और प्रकृति की इस अनुपम कृति में ध्यानमग्न होने का प्रयास करने लगे किंतु मन अब भी इतना विचलित क्यों था....? क्या चाहिए था इसे......? दुविधाओं में बार-बार मन इधर-उधर क्यों भटक जाता था । इन्हीं उलझन में उनका मस्तिष्क भटकता रहा। तभी कलरव से इतर कुछ पत्तों की सरसराहट की ध्वनि उनके कानों में पड़ी , वे सावधान हो गए....... शायद कोई पशु पानी पीने उस ओर आ रहा था। उन्होंने पत्थर की ओर से देखा एक हिरण पानी पी रहा था। उन्होंने अपना धनुष बाण निकाला और उसे लक्ष्य किया परंतु इस हलचल से उसे भय का आभास हुआ और वह पेड़ों के झुरमुट की ओर भागा । रुद्रदेव भी उसके पीछे भागे और अनुमान लगाकर एक बाण झुरमुट की ओर छोड़ा। हिरण की चित्कार सुनाई दी शायद बाण उसे जा लगा था। रुद्रदेव उन पेड़ों की ओर बढ़े जहां वह हिरण मृत था। उसके निकट पहुंचकर उन्होंने उसके शरीर से बाण खींचकर निकाला ...........तब उनका ध्यान उस बान की ओर गया, “यह तो उनका बाण न था, यह कैसे संभव है और कौन है यहां पर.......? ” वे खड़े हो गए तलवार खींचली। तभी एक युवक दौड़ता हुआ वहां पर आया और इस आश्चर्य से रूद्रदेव को देखा जैसे उसे विश्वास ही ना हुआ हो कि कोई अन्य मनुष्य भी इस निर्जन वन में आ सकता है। लगभग उन्नीस-बीस वर्ष उसकी आयु होगी , उसने केवल कटिवस्त्र पहना हुआ था , उसकी भुजाओं , उसके सुडौल कंधों और बलिष्ठ भुजाओं में उसके स्नायु तने हुए थे ,आंखों में नई चमक थी। “ यह मेरा शिकार है ” उसने निर्भीकता से कहा। “ नहीं मेरा शिकार है इसे मेरा बाण लगा है ” रुद्रदेव ने परिहास में बालक से बात आगे बढ़ाने के लिए यूं ही कह दिया । “ नहीं वह लकड़ी का बाण है , आप देखिए इसे मैंने ही बनाया है " “तब तो निर्णय युद्ध से ही होगा ” रुद्रदेव ने अपनी तलवार थोड़ी बाहर की । उसने अपनी कच्चे लोहे की तलवार उठा ली , रुद्रदेव की हंसी छूट गई । “ इस तलवार से युद्ध करोगे तो अवश्य ही हार जाओगे ” “ चाहे मैं कच्चे लोहे की तलवार से युद्ध करूं या लोहे से किंतु हारेंगे आप ही क्योंकि ग्लानि आपके मन में है । आप जानते हैं कि यह बाण मेरा है ।” “बातें तो बड़ी-बड़ी करते हो , क्या नाम है तुम्हारा ? ” “ पहले आप बताइए कि आप कौन हैं क्योंकि ये क्षेत्र मेरा है” “ मैं से..........रुद्रदेव कुछ ठिठके फिर कहा, मैं हरितभूमि से आया हूं मैं वहां शिक्षक हूं । कुछ दिनों का अवकाश लिया है , मेरा नाम ज्ञानेंद्र है। ” “ शिक्षक होकर आखेट ” “अच्छा तार्किक भी हो ! अरे भाई मैं शस्त्र विद्या का शिक्षक हूं । अब तुम बताओ तुम कौन हो ? ” “मैं प्रसेन हूं , यहां निकट एक बस्ती है वहीं रहता हूं ।” “पिता कौन हैं ?” “पिता नहीं हैं , मां के साथ रहता हूं ।” “ इस कच्चे लोहे की तलवार से लड़ना किसने सिखाया ” रुद्रदेव ने उसका परिहास करते हुए कहा । “ मेरे बाबा कहते हैं कि मुझे अब बहुत जल्द बड़ी तलवार उठानी होगी ।” “कौन बाबा ? ” “ मेरे पिता के मित्र , वही हमारा ध्यान रखते हैं और हमें सब साधन उपलब्ध कराते हैं ।” रुद्रदेव बहुत देर तक उससे इधर-उधर की बातें करते रहे और वह बताता रहा। दोपहर बीत गई । “अब मुझे चलना होगा , मां राह देख रही होगी। आज मेरा जन्मदिन है इसीलिए यह हिरन मारा है । कल आइएगा , कल बाकी बातें करेंगे ।” कहकर उसने हिरण को कंधे पर उठा लिया । “ लेकिन इस हिरण को ले जाने का निर्णय कहां हुआ।” “ आप ने हार मान ली है।” उसने कहा , फिर दोनों हंसने लगे । वह चला गया। रुद्रदेव भी संध्या ढलते-ढलते पुनः विराटनगर लौट आए। Previous< >Next ------------ आगामी भाग में पढ़ें- कौन है ये बालक? कहाँ से आया है? रुद्रदेव से क्या लेना देना है इसका ? जानने के लिये पढ़ते रहें “महाप्रयाण” अपने विचारों से अवगत अवश्य कराये। आगामी भाग दिनांक 19.0.3.2017 को प्रकाशित किया जाएगा। नोटिफिकेशन प्राप्त करने के लिए फॉर्म अवश्य साइन अप करें। धन्यवाद
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