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महाप्रयाण    (भाग-3)  "स्मृति

6/11/2016

4 Comments

 
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      उत्तर के पर्वतीय क्षेत्र की तलहटी के वन क्षेत्र में एक सफ़ेद वन शूकर अपने नुकीले दांत लिए बहुत तेज गति से अपने प्राणों की रक्षा के लिए भाग रहा था उसके पीछे उस से दुगनी तेजी से एक श्वेत अश्व भाग रहा था जिस पर सेनापति रुद्रदेव धनुष बाण लेकर शरसंधान का प्रयास कर रहे थे । शूकर की गति का अनुमान इसी से लगाया जा सकता था कि दो बार रुद्रदेव अपने संधान से चूक गए थे और उनके क्रोध का पारा अपने चरम पर था। अश्व पर से अपने दोनों हाथ छोड़कर अंतिम बार रुद्रदेव ने शर संधान किया और उस से दस गुना तेजी से निकला एक बाण रुद्रदेव के धनुष से छूटकर सरसराता हुआ सीधा शूकर की गर्दन के आर-पार हो गया और शूकर लहूलुहान होकर वहीं भूमि पर गिर गया।  सेनापति रुद्रदेव शूकर को लेकर वहां लौटे जहां महाराज अपने सैनिकों के साथ खड़े थे।

         उन्हें देखकर महाराज अत्यधिक प्रसन्न भाव से बोले “तुम्हारी तीव्र दृष्टि और धनुष चलाने की कुशलता देखना सदैव ही सौभाग्य का क्षण होता है , संभवतया इसीलिए हम तुम्हारे साथ आखेट पर आना पसंद करते हैं ।"
“यह तो आपकी उदारता है महाराज "  रुद्रदेव ने नतमस्तक होते हुए कहा

“आओ रुद्रदेव महल की ओर चलें"

दोनों अपने अपने अश्वों पर साथ-साथ धीमे धीमे चल रहे थे पीछे पीछे कुछ दूरी पर उसी गति से सैनिक चल रहे थे।
"इतने भयंकर वन्यजीवों से लोहा लेते हो कभी भय नहीं लगता सेनापति"

“महादेव की सौगंध महाराज मैं आपके सम्मुख बड़ी बात तो नहीं कहता पर भय का लेशमात्र भी कभी आपके सेवक के आस-पास नहीं फटका और फिर भय उसे लगे जिसके आगे-पीछे कोई विलाप करने वाला हो, मैंने तो स्वयं को सर्वथा इस संकट से मुक्त रखा है।"

“क्या कभी सचमुच विवाह या परिवार का विचार भी मन में नहीं आया सेनापति " महाराज ने कुछ द्रवित हो कर कहा।

“यह जीवन तो मातृभूमि और आप जैसे प्रजापिता का ऋण उतारने के लिए ही प्राप्त हुआ है , अगले जन्म में विवाह आदि प्रपंच भी रचेंगे कदाचित " कहकर रुद्रदेव हंसने लगे

“तुमसा सेनापति पाकर हम धन्य है रुद्रदेव यहां तक कि हमारा यह जीवन भी तुम्हार ऋणी है , तुम्हें स्मरण है जब पिताजी की असमय मृत्यु पर हमारा राज्यभिषेक हुआ था और तुम्हें भी विराटनगर का सेनापति पद संभाले अधिक समय नहीं हुआ था हमारी उन विषम परिस्थितियों का लाभ षटकुल के राजा ने उठाया और विराट नगर पर आक्रमण कर दिया था" सारे संस्मरण महाराज की आंखों के सामने चलचित्र की भांति चलने लगे।

फिर आगे कहा

“उसी युद्ध में मुझे भ्रमित कर शत्रुपक्ष ने चारों ओर से घेर लिया था, मैं जब तक कुछ समझ पाता तब तक मैं उनके जाल में फंस चुका था , मैं क्या करूं मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था , चारों ओर से तलवारों की आवाजें मेरे कानों को भेदती हुई मेरी ओर बढ़ रही थी,  मेरे मन में भय ने ऐसा आतंक बैठाया था कि मेरे हाथ युद्ध करने को नहीं उठ पा रहे थे, मैं जैसे जड़ हो गया था।  उस समय तुम अचानक दोनों हाथों में तलवार लिए आए और आज ही की भांति अश्व पर से दोनों हाथ छोड़कर दोनों तलवारों से शत्रुओं को चीरना शुरू कर दिया , फिर मुझ में भी न जाने कहां से शक्ति आ गई और हम दोनों ने शत्रुओं के शवों के ढेर लगा दिए। उस युद्ध का परिणाम यह हुआ कि षटकुल को हमारे साथ कई संधियाँ करनी पड़ी , जिसकी टीस आज भी उनके मन में है , यह जीवन तुम्हारा ही बचाया हुआ है रुद्रदेव " महाराज ने वर्तमान में वापस लौटते हुए अपनी बात पूर्ण की।

सेनापति कुछ भावुक होकर बोले “कोई बालक अपने पिता पर उपकार नहीं करता महाराज, वह तो सदैव अपने कार्यों से अपने पिता के ऋण से उऋण होने का प्रयत्न मात्र ही करता रहता है , मैंने भी उससे अलग कुछ नहीं किया महाराज और यदि भविष्य में भी कभी आपके लिए या इस मातृभूमि के लिए इस रूद्रदेव को अपना मस्तक काटकर भी चढ़ाना पड़ा तो यह सेवक कभी पीछे नहीं हटेगा" कुछ क्षण रुक कर सेनापति ने कहा “षटकुल के वर्तमान क्रियाकलापों को देख कर लगता है कि उसे वह युद्ध विस्मृत हो गया है या फिर वह विराटनगर को कमजोर समझने लगा है।"

“यदि वह विराटनगर को कमजोर समझता है तो उस राजा को तुम्हारा आज का आखेट अवश्य देखना चाहिए फिर वह कदाचित ऐसी भूल कभी न करे" कहकर महाराज हंसने लगे साथ-साथ  रुद्रदेव भी हंस पड़े।

“यह जो सामने चक्रीय वन दिखाई पड़ रहा है जो तुम ने बनवाया है सेनापति , अब तो काफी बड़ा हो चुका है”  मार्ग के बाँई और दिखाई दे रहे उस विशाल सुदर्शन वन को देखकर महाराज ने कहा।

“ सब आपकी कृपा है महाराज अब तो यह सुदर्शन वन जो सुदर्शन चक्र के रूप में ही गोलाकार बना हुआ है इतना सघन हो चुका है कि अब प्रथम और द्वितीय पंक्ति के पश्चात पीछे क्या है यही दिखाई नहीं पड़ता”

“हम्म अच्छा है बहुत सुंदर ”

संध्या हो चली थी , इसी तरह बतियाते हुए वे कब राजमहल में प्रवेश कर गए उन्हें पता भी न चला।

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आगामी भाग में पढ़ें- राजधर्म की ऐसी कौनसी दुविधा में हैं महाराज कीर्तिवर्धन जो उन्हें अपना निर्णय वापस लेने के लिए बाध्य कर रही है और उससे निकलने का क्या मार्ग दिखाया राजपुरोहित आचार्य बाणभट्ट ने?

आगामी भाग दिनांक 09.11.2016 को प्रकाशित किया जाएगा। कथा अभी अपनी प्रारंभिकअवस्था में है और हमारे पाठकों के प्रतिसाद को देखकर हम अभिभूत हैं। कृपया यह आशीर्वाद हम पर बनाये रखें और अपने अमूल्य सुझावों से अवगत कराते रहें।

E-mail द्वारा update प्राप्त करने के लिए कृपया sign up form अवश्य भरें।
सधन्यवाद



4 Comments
Preet kamal
6/11/2016 02:02:02 pm

Reply
Abhishek vyas
6/11/2016 09:40:39 pm

Spast aur kasa hua drishy sanyojan....

Reply
Maya kaul
7/11/2016 03:52:08 pm

बहुत सौंदर्य से भरपूर भाषा।उत्सुकता बानी ही रहती है,बहुत दिनों बाद ये सब पढ़ा।चंद्रकांता की यद् आ गयी

Reply
fictionhindi
7/11/2016 06:18:39 pm

बहुत बहुत धन्यवाद
ये प्रशंसा ही हमारी ऊर्जा है,
कृपया पढ़ते रहे और पोस्ट नोटिफिकेशन के लिए फॉर्म साइन अप करें

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