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महाप्रयाण  (भाग-4)  "दुविधा"

13/11/2016

3 Comments

 
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​           लगभग एक माह पश्चात 

         रात्रि के प्रथम पहर का घंटानाद हुए अभी कुछ समय ही बीता था महाराज कीर्तिवर्धन अपने बैठक कक्ष में विचलित भाव से तेजी से टहल रहे थे । कक्ष के चारों कोनों में कमर तक की ऊंचाई के दीपक जल रहे थे , उन दीपकों का मध्यम प्रकाश कक्ष में चारों ओर फैला था , कमरे के बीच में एक नक्काशीदार छोटी मेज थी जिस पर एक मदिरा पात्र और एक चषक रखे हुए थे । चषक लगभग आधा भरा था , चिंता और शोक के समय में स्वयं को शांत रखने के लिए कभी-कभी महाराज को इसकी आवश्यकता होती थी अन्यथा वे इनसे दूरी ही बनाए रखते थे । 
            तभी कक्ष के द्वार पर जो कि खुला हुआ ही था तथा जिस के बाहर दो प्रहरी खड़े हुए थे कुछ हलचल हुई, एक गंभीर वाणी ने पूरे कक्ष की वायु में कंपन उत्पन्न कर दिया 

 “राजन का यश अमर रहे"

          विराटनगर के राजपुरोहित आचार्य बाणभट्ट भीतर प्रवेश कर रहे थे। मस्तक पर त्रिपुंड , सफेद दाढ़ी व श्वेत केश, श्वेत वस्त्र तथा श्वेत ही उत्तरीय, उनका मुखमंडल भी एक अपूर्व आभा से कांतिमान था। मुख पर शांति और तेज दोनों विराजमान थे । उनके आगमन से कक्ष के प्रकाश में अचानक वृद्धि हुई । 
​
“क्या बात है राजन! इतनी रात्रि के समय स्मरण किया  क्या कोई विशेष बात है, क्या आदेश है"

“नहीं नहीं कोई आदेश नहीं , निवेदन है गुरुवर । क्षमा प्रार्थी हूं कि इस समय आप को कष्ट दिया किंतु राष्ट्र उत्थान से संबंधित प्रश्न बिना गुरुजनों के मार्गदर्शन के हल भी तो नहीं होते, आइए आसन ग्रहण कीजिए"

“औपचारिकताओं में ना पड़ो राजन मूल विषय पर आओ" शांत भाव से आज्ञा हुई ।

महाराज ने कहना आरंभ किया “उस दिन आप की सहमति से ही सेनापति रुद्रदेव द्वारा सेना को सबल बनाने की आवश्यक मांगों को अनुमोदित किया गया था। तब यह साधन उचित प्रतीत हुआ था किंतु अब कुछ समय बीतने पर उसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं , सेना पर अतिरिक्त खर्च से राज्य के अन्य कार्यों में बाधा उत्पन्न हुई है । शिक्षकों को , राज्य कर्मियों, चिकित्सकों , आंतरिक बल के कार्मिकों आदि को वृत्ति का भुगतान नहीं हो पा रहा है । व्यापारियों पर करों का अतिरिक्त भार लगाने से वस्तुएं महंगी हो गई है । गत वर्ष पर्याप्त वर्षा न होने से कृषक व श्रमिक वर्ग की स्थिति पहले ही विकट है, वे सूदखोरों के जाल में उलझते जा रहे हैं । प्रजा इस व्यवस्था से त्रस्त हो रही है।”

महाराज अपने आसन पर जाकर बैठ गए “ क्या मैं अपने कर्तव्य का पालन ठीक से कर पा रहा हूं?" उन्होंने स्वयं से ही प्रश्न किया। 

फिर राजपुरोहित के सम्मुख आकर बोले “मुझे लगता है कि उस दिन लिए सेना पर व्यय के निर्णय को बदलकर पूर्ववत करना चाहिए , मैं इस दुविधा से ही विचलित हूं। कृपया इस संबंध में मेरा सदा की तरह मार्गदर्शन कीजिए इसीलिए मैंने आपको इस समय स्मरण किया था।”

“विचलित ना हो राजन” 

आचार्य ने सुस्थिर वाणी में कहा 

“क्योंकि विचलन , चूक निर्णय से भी अधिक भयावह है । एक बार लिए निर्णय को बार-बार बदलना परिणामों पर अधिक बुरा प्रभाव डाल सकता है । प्रत्येक निर्णय के अच्छे और बुरे परिणाम होते हैं , जिन्हें राष्ट्रहित में सभी को सामूहिक रुप से भोगना होता है । बालक को औषधि देने पर वह पिता को बुरा समझता है किंतु पिता ही जानता है कि उसमें बालक की भलाई है इसीलिए यदि प्रजा तुम्हें गलत समझे तो उसे समझने दो।”

कुछ क्षण रूककर वे पुनः बोले

“तुम केवल प्रजापालक पिता ही नहीं हो, क्षत्रिय भी हो और यह राष्ट्र तुम्हारी मातृभूमि है।  कोई तुम्हारी मां को हाथ लगाए इस विचार से ही तुम्हारा रक्त उबलने लगेगा तो  फिर मातृभूमि के प्रश्न पर दुविधा क्यों? एक राजा और उसकी प्रजा का, सम्मान के साथ उपवास पर रहकर मृत्यु को प्राप्त होना, आत्मसम्मान के बिना एक क्षण भी जीने से अधिक श्रेयस्कर है । तुम प्रजापालक पिता हो तो तुम यह क्यों भूल जाते हो की सीमावर्ती ग्रामों की प्रजा भी तुम्हारी ही है, षटकुल द्वारा उन्हें बार-बार आतंकित किया जाता है ।  क्या उनके कष्ट से तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं है । जो जन तुम्हारे सामने हैं केवल उनके कष्ट तुम्हें दिख रहे हैं किंतु वहां , वे कितने भय में जीवन यापन कर रहे होंगे कभी जाकर देखा है ।"

महाराज कुछ व्याकुल हो गए।

आचार्य बाणभट्ट निरंतर कह रहे थे “कोई पिता ऐसा नहीं होता जो बड़े पुत्र की अधिक भूख शांत करने के लिए छोटे पुत्र को भूखा रख देे, उसे तो सब पुत्रों से समान स्नेह होना चाहिए । यदि तुम दोनों को अलग समझते हो तो तुम्हें प्रजापालक कहलाने का कोई अधिकार नहीं। मैंने उस दिन सेनापति के निर्णय को स्वीकृत किया था,  वह निर्णय सही था जिसका तुमने भी अनुमोदन किया था । उसके अधिकार बढ़ाने के निर्णय को इसलिए निरस्त किया था क्योंकि जिसके पास बुद्धि बल पर्याप्त हो उसे अधिकारों का बल आवश्यकता से अधिक नहीं दिया जा सकता । जिस प्रकार समान मात्रा में घी और शहद मिलाने से विष बन जाता है ,उसी प्रकार बुद्धिबल और भुजबल भी समान मात्रा में मिलने से विषाक्तता का भय रहता है । सेनापति की राष्ट्रभक्ति में किसी को कोई शंका नहीं है, ऐसा सेनापति पाकर विराटनगर धन्य है किंतु राजधर्म की अपनी मर्यादाएं होती हैं । मेरी इन बातों से तुम्हारे हृदय को ठेस तो पहुंची होगी किंतु धर्मदंड सबसे ऊपर है राजन ! धर्म से विचलित ना हो धर्म का पालन करो।” इतना कहकर राजपुरोहित चुप होकर मुस्कुराने लगे।

“आपका आदेश सदैव सर्वोपरि है गुरुवर और आपके मार्गदर्शन में विराटनगर ने सदा प्रगति की है ।  मैं अपने निर्णय पर प्रतिबद्ध हूं और विचलित भी नहीं हूँ। ये कीर्तिवर्धन आपका बहुत आभारी है गुरुवर।” यह कहते समय महाराज के मुख पर भी आत्मसम्मान की छटा दिखाई देने लगी।

“कल्याणमस्तु” इतना कहकर अपना हाथ उठाकर राजपुरोहित कक्ष से बाहर निकल गए । उस रात्रि महाराज को भी ठीक से निद्रा आई।

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आगामी भाग में पढ़ें- राज्य के वित्तीय प्रबंधन के लिये क्या सुझाव दिए कोषाध्यक्ष ने और इस पर महाराज और सेनापति की क्या प्रतिक्रिया हुई। 
आगामी भाग दिनांक 13.11.2016 को प्रकाशित किया जाएगा। कृपया अपना  आशीर्वाद हम पर बनाये रखें और अपने अमूल्य सुझावों से अवगत कराते रहें।

E-mail द्वारा update प्राप्त करने के लिए कृपया sign up form अवश्य भरें।
सधन्यवाद



3 Comments
Soni rajendra kumar
9/11/2016 02:50:10 pm

बहुत ही अच्छा और ज्ञान वर्धन लेख है । ऐसे लेख स्वागत योग्य है बहुत बहुत साधुवाद ।

Reply
Megha
9/11/2016 03:20:37 pm

Incredible........

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Preet kamal
9/11/2016 05:15:35 pm

Going great .... Best wishes!

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