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उसके बाद रुद्रदेव कभी प्रसेन से मिलने नहीं गए । धीरे-धीरे फिर से उन्होंने राजसभा में आना शुरु कर दिया। कुछ काल पश्चात एक दिन ......... एक गुप्तचर सूचना लेकर आया , “महाराज का यश अमर रहे । ” “कहो क्या सूचना है ” “ उस विद्रोह के कर्ता और नेता के बारे में कुछ सूचना ज्ञात हुई है । ” “ कैसा विद्रोह, कब और कहां हुआ यह, रुद्रदेव ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी? ” महाराज के कुछ कहने से पहले कुशाग्र बोल पड़ा और सारी बात से सेनापति को अवगत कराया। “ मेरे पीछे से यह विद्रोह हुआ और मुझे ज्ञात नहीं आश्चर्य है । ” गुप्तचर आगे बोला , “ सूचना यह है कि षटकुल के पूर्व राजा शतादित्य का विश्वस्त सेवक धनपाल, जो कि शतादित्य की मृत्यु से लेकर अब तक उसके परिवार और मित्रों की सहायता कर रहा था। उसने उन सभी को मिलाकर दस्युओं का एक गिरोह तैयार कर लिया है । वह लगातार धीरे धीरे अपने और अधिक से अधिक विश्वस्त लोगों को जोड़ता जा रहा है । वे लगातार छोटी-मोटी लूटपाट कर अपने उद्देश्य के लिए धन एकत्रित किया करते थे किंतु अब उनकी संख्या बढ़ने से वे बड़ी डकैतियां भी करने लगे हैं। वे इतनी चतुराई से अपना काम करते हैं कि शासन को उनके काम की भनक तक नहीं लगती । अब तो हमारे सूत्रों से यहां तक ज्ञात हुआ है कि धनपाल ने शतादित्य के पुत्र प्रसेनादित्य को विराटनगर के विरुद्ध युद्ध का नायक बना दिया है और वह विराटनगर से प्रतिशोध लेने के लिए सेना एकत्रित कर रहा है । ” प्रसेन का नाम सुनते ही रुद्रदेव का ह्रदय जोर से धड़का और आत्मग्लानि से उनका चेहरा पीला पड़ गया । “ किंतु सेना कहां से एकत्रित करेंगे और इतना धन भी क्या लूटपाट से प्राप्त होगा ?” कुशाग्र ने पूछा। गुप्तचर ने उत्तर दिया ,“ उपसेनापति ! षटकुल के विरुद्ध युद्ध में आपके अंतिम आक्रमण के पश्चात , षटकुल की जो सेना तितर-बितर हो गई थी । वे उन्हीं में से अपने योद्धाओं को एकत्रित कर रहे हैं । ऐसा भी सुनने में आया है कि धनपाल पहले षटकुल का कोषाधिकारी था और युद्ध के समय उसने बहुतसा धन व स्वर्ण आभूषण तथा सोने के सिक्के आदि राजकोष से गायब कर दिए थे और केवल बहुत थोड़ा ही कोष दिखावे के लिए रखा था , जिसे हमने युद्ध पश्चात राजसात किया था ।” “ हम्म ! ये तो बहुत गंभीर मामला है हमें तत्काल उन्हें खोजना होगा और समाप्त करना होगा , अन्यथा वे हमारे लिए बहुत बड़ा संकट खड़ा कर सकते हैं । आपका क्या विचार है सेनापति ? ” सेनापति जैसे किसी निद्रा से जागे हों। “ वे हड़बड़ाकर बोले, हां हां आप ठीक कहते हैं महाराज! कुशाग्र तुम सेना की एक टुकड़ी लेकर जाओ और आवश्यक कार्यवाही करो । ” कुशाग्र सेना की टुकड़ी लेकर गया भी और उसने सैनिक कार्यवाही भी की किंतु उसे आंशिक सफलता ही हाथ लगी। धनपाल को वह पकड़ न सका और प्रसेन भी उसके हाथ न लगा। कुछ समय पश्चात उनके उपद्रव , डकैतियां थम गईं। गिरोह और योजना को समाप्त जानकर कुशाग्र वापस विराटनगर आ गया। Previous< > Next -------------------------------- आगामी भाग में पढ़ें- क्या सचमुच वे डकैतियां थम गई थी? क्या सचमुच प्रसेन और धनपाल का गिरोह समाप्त हो गया था या वे चुपचाप अपनी सेना का गठन कर रहे थे ? क्या विराटनगर के लिए किसी अनिष्ट की सूचना आने वाली थी? जानने के लिये पढ़ते रहें “महाप्रयाण” अपने विचारों से अवगत अवश्य कराये। आगामी भाग दिनांक 16.04.2017 को प्रकाशित किया जाएगा। नोटिफिकेशन प्राप्त करने के लिए फॉर्म अवश्य साइन अप करें। धन्यवाद
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“आज आप मेरे घर चलिए , मेरे साथ, मुझे आपको अपनी मां से मिलवाना है ” प्रसेन ने बच्चों जैसी हठ की। “ क्यों ,कुछ विशेष है वहां ? ” “ हाँ! आप शायद भूल गए किन्तु मुझे याद है , आज आपको मुझसे मिले हुए पूरा एक वर्ष हो गया है । जिस दिन आप मुझे मिले थे उस दिन भी मेरा जन्मदिन था और आज भी है, तो चलिए मेरे घर ” प्रसेन रुद्रदेव का हाथ पकड़कर खींचने लगा। “ हाँ हाँ , ठीक है , ठीक है ......तुम इतना कहते हो तो चलो, तुम आगे चलो हम अपना अश्व लेकर आते हैं ।" प्रसेन दौड़ता हुआ तेजी से आगे बस्ती की ओर चल दिया। रुद्रदेव ने भी अपना अश्व खोला और उस ओर चलने लगे जिस ओर प्रसेन गया था । “ माँssssss. मांssssss " प्रसेन अपनी झोपड़ी में पहुंचा। “ मेरे गुरुदेव हरितभूमि के शस्त्र शिक्षक ज्ञानेंद्र आए हैं, तुमसे मिलने ।” “ अच्छा अरे पहले क्यों नहीं बताया , कुछ विशेष पकवान बना लेती । कहां हैं?.......” कहती हुए वह झोपड़ी से बाहर निकली , “कहां हैं ? यहां तो कोई नहीं है । ” “आते ही होंगे, वे अपना अश्व लेकर आ रहे हैं।” रुद्रदेव अपने अश्व को लेकर उस छोटी सी पहाड़ी से नीचे उतर रहे थे जिसके आगे नीचे की ओर प्रसेन का घर था। उन्होंने झोपड़ी के बाहर खड़ी प्रशन की मां को दूर से ही देखा, “ हे शंभू " उनके होश उड़ गए । उन्होंने वहीं से अपना अश्व पलटाया और वापस विराटनगर की ओर निकल गए । घोड़ों की टापों की आवाज सुनकर प्रसेन और उसकी मां ने देखा तो उन्हें दूर से ही अश्व पलटकर जाता हुआ दिखाई दिया । “ अरे वे तो वापस जा रहे हैं । जरूर तूने उन्हें ठीक से न्योता नहीं दिया होगा । ” प्रसेन की मां उसे डपटती हुई वापस घर में चली गई। प्रसेन को कुछ समझ ना आया कि वे वापस क्यों चले गए। विराट नगर से वापसी के रास्ते में रुद्रदेव के मस्तिष्क में भयंकर द्वन्द चल रहा था। जैसे कोई सिर में हथौड़े बरसा रहा हो । अपराध बोध से उनका मन जला जा रहा था और आंखों से अश्रुधार रुकने का नाम नहीं ले रही थी । “ हे मेरे भोलेनाथ यह क्या अपराध करवा दिया तूने । वह महिला तो षटकुल के राजा शतादित्य की पत्नी थी , इसका तात्पर्य हुआ कि प्रसेन, जिसे मैंने अपने पुत्रवत मान लिया था , वह विराटनगर के शत्रु शतादित्य का पुत्र है । वही बालक जिसे 6 वर्ष पूर्व मेरे हाथों से मर जाना चाहिए था , परंतु महाराज के कहने से जिसे जीवनदान दिया था। आज उसे मैंने अपनी विद्या का दान कर दिया । यह क्या हो गया मुझसे , यह क्या हो गया ?” रुद्रदेव सीधे अपने महल में पहुंचे और पश्चाताप में सामने जलते हुए अलाव पर अपने दोनों हाथ रख दिए किंतु इस पीड़ा का अंश भी उनके चेहरे पर ना दिखा, कष्ट तो उस अपराध का था , जो अनजाने में हो गया था । जैसे ही उनके सेवक ने उन्हें इस स्थिति में देखा उसने तेजी से झपटकर उनके हाथों को दूर किया। “यह क्या कर रहे हैं स्वामी ? यह अपराध है । ” “ यह कोई अपराध नहीं है बाबा! अपराध तो वह है , जो हम से अनजाने में हो गया है।” “ कौन सा अपराध, कुछ बताइये तो सही।” “ कुछ नहीं ” इतना कहकर वे पश्चाताप और आत्मग्लानि की अग्नि में जलते हुए अपने कक्ष में चले गए और अंदर से दरवाजा बंद कर दिया।” Previous< >Next -------------------------------- आगामी भाग में पढ़ें- शत्रुपुत्र को विद्यादान , अब क्या मूल्य चुकाना होगा रुद्रदेव को इस अपराध का। जानने के लिये पढ़ते रहें “महाप्रयाण” अपने विचारों से अवगत अवश्य कराये। आगामी भाग दिनांक 02.04.2017 को प्रकाशित किया जाएगा। नोटिफिकेशन प्राप्त करने के लिए फॉर्म अवश्य साइन अप करें। धन्यवाद Previous< >Next
उस युवक से मिलकर ना जाने क्यों मन का भार कुछ हल्का अनुभव हो रहा था। उसके बलिष्ठ शरीर में उन्हें अपना शरीर दिखाई दिया था और उसकी आंखों में अपने स्वप्न । अगले दिन प्रातः उठकर वे पुनः उसी रूप सज्जा के साथ अंधेरे में ही उस स्थान के लिए निकल गए। तालाब के किनारे प्रसेन अपनी उसी अनगढ़ तलवार के साथ अकेला ही द्वन्द युद्ध के पैतरों का अभ्यास कर रहा था, रुद्रदेव के आने की उसे भनक न लगी । रुद्रदेव उसके पीछे पेड़ों के झुरमुट में खड़े होकर उसे अभ्यास करते देख रहे थे । कुछ देर बाद उनसे रहा न गया और उन्होंने उसके पास जाकर उसकी कलाई थामकर उसे सीधा किया , प्रसेन अपने एकदम निकट से उन्हें देखकर प्रसन्न हो गया। फिर उन्होंने नीचे झुककर प्रसेन के पैरों की चौड़ाई को कुछ कम किया, “पैरों के मध्य स्थान इतना हो कि दोनों पैरों पर समान दबाव रहे , इस से कभी गिरोगे नहीं और वार में पर्याप्त बल भी रहेगा। अब चलाओ....” वे पीछे हट गए प्रसेन को सचमुच अंतर अनुभव हुआ, “ हां आप सही कहते हैं ।” अब रुद्रदेव ने भी अपनी तलवार निकाल ली और प्रसेन के सम्मुख आकर अपने पैरों को चौड़ा कर , तलवार अपने सामने सीधी खड़ी की फिर धीरे से तलवार घुमाकर तिरछी करते हुए सामने ले गए । ठीक वैसा ही प्रसे्न ने भी किया और दोनों तलवारें धीमे से एक दूसरे से टकराई ।” “हां बढ़िया! ठीक ऐसे ही” रुद्रदेव ने खुश हो कर कहा। दिनभर अलग-अलग अस्त्रों से अभ्यास चलता रहा । शाम को दोनों थक कर एक पत्थर पर बैठ गए , “ क्या आप मुझे शस्त्र विद्या सिखाएंगे? मेरा कोई गुरु नहीं है , मैं आपको अपना गुरु बनाना चाहता हूं ।” प्रसेन , रुद्रदेव की शस्त्र विद्या देखकर चमत्कृत था। “ सिखा तो दूं परंतु इतना समय नहीं है । मुझ पर बहुत भार है रुद्रदेव ने माथे पर सिलवटें लाते हुए कहा ।” “ कल तो आप कह रहे थे कि आप अवकाश पर हैं। अच्छा! आपको नहीं सिखाना तो बहाना बनाने की आवश्यकता नहीं है । " “ ऐसी बात नहीं है ! " रुद्रदेव ने हंसते हुए कहा , “तुम तो बहुत प्रखर बालक हो किंतु..........” “ आप मुझे शिक्षा दीजिए और आपका सारा भार मैं वहन कर लूंगा ” उसकी शस्त्र विद्या के प्रति ललक और उसके मन की निश्चलता देखकर रुद्रदेव मना न कर सके । अब तो रोज का वही क्रम हो गया था । रुद्रदेव सुबह सवेरे ही विराटनगर से वहां आ जाते थे और दिन भर प्रसेन के साथ बिता कर संध्या को पुनः विराटनगर लौट आते थे। प्रसेन भी दिन प्रतिदिन दक्षता प्राप्त करता जा रहा था। समय भी निरंतर चलता जा रहा था । इसी क्रम में लगभग 6 माह बीत गए । xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx “ महाराज की जय हो " सेनापति कुशाग्र ने महाराज को प्रणाम किया । उसके साथ एक दूत भी था । “ महाराज यह हमारा दूत है जो षटकुल से आया है । इसे हमारे षटकुल के सामंत ने भिजवाया है ।” “ क्या बात है ?” “ इनका कहना है कि षटकुल की पश्चिमी सीमा अर्थात हमारे विराटनगर के षटकुल क्षेत्र के सुदूर पश्चिम छोर* पर सत्ता के विरुद्ध कुछ विद्रोह हो रहा है , जिसे ये लोग दबाने में असफल रहे हैं।” “ अच्छा यदि ऐसा है तो शीघ्र सेना भिजवानी होगी। द्वारपाल ! जाओ शीघ्र सेनापति रुद्रदेव को सूचित करो कि हमने स्मरण किया है ।” “ लेकिन सेनापति यहां नहीं है , कुशाग्र ने द्वारपाल को जाने से पहले ही रोक दिया । वे आजकल यहां रहते ही कहां हैं, सुबह सवेरे ही कहीं निकल जाते हैं और संध्या को अंधकार के पश्चात ही वापस आते हैं , राज्य की सुरक्षा की ओर ध्यान कम ही है उनका आजकल । ” कुशाग्र ने कुछ बढ़ाकर कहने का प्रयास किया। “ अच्छा यदि सेनापति यहां नहीं है तो कुशाग्र तुम सेना की उचित टुकड़ी लेकर जाओ और उपद्रव को कुचल दो ।” “ जैसी आज्ञा महाराज और हां अपने गुप्तचरों को भी सूचित करो कि पता लगाए कि यह उपद्रव आखिर किसके कहने पर हो रहे हैं और उनका नेता कौन हैं ? ” “ जी ” कुशाग्र , महाराज को सादर प्रणाम कर निकल गया । उधर एक दिन रुद्रदेव और प्रसेन , दोनों पत्थर पर बैठकर वार्तालाप कर रहे थे । रुद्रदेव अपने हाथ में कटार लेकर पत्थर पर कुछ चित्र खींच रहे थे । “ यदि तुम्हें किसी राज्य पर आक्रमण करना हो तो तुम्हारी क्या योजना होगी? ” रुद्रदेव ने प्रश्न किया । “ योजना क्या , सीधा अपनी सेना के साथ उन पर आक्रमण कर दूंगा ।” “ तब तो वे तुम्हें अवश्य ही हरा देंगे क्योंकि उन्हें तुम्हारी हर गतिविधि ज्ञात होगी । युद्ध में सदैव वे ही सफल होते हैं जो शत्रु को दो ओर से घेर लेते हैं और उसे संभलने का मौका नहीं देते ।” “ किंतु किसी को पीछे से घेरकर मारना तो नीति नहीं है।” “ युद्ध में नीति नहीं विजय महत्वपूर्ण होती है ।” रुद्रदेव ने विश्वास से कहा । “ तो नहीं चाहिए ऐसी विजय , जो किसी की पीठ में छुरा घोपने से मिली हो।” उसने रुद्रदेव की आंखों में आंखें डाल कर कहा , “ और भी मार्ग हो सकते हैं और भी योजनाएं हो सकती हैं किंतु पीछे से वार करना यह मेरा तरीका नहीं है।” वह रुद्रदेव के चरणो में बैठ गया और पैर छूते हुए बोला , “ मुझे आशीर्वाद दीजिए गुरुदेव कि मुझे कभी ऐसी अनुचित नीति का उपयोग न करना पड़े चाहे विजय मिले अथवा न मिले ।” रुद्रदेव ने उसे उठाकर सीने से लगा लिया, उनकी आंखें नम हो गई , “ शाबाश पुत्र , यदि आज मेरा कोई पुत्र होता तो मुझे उससे भी ऐसी ही उम्मीद होती । तुमने आज सचमुच मेरा मान बढ़ाया है, शतायु भव! ” *सीमाओं का वितरण देखने के लिए भाग - २ “सीमांकन” देखें। Previous< >Next -------------------------------- आगामी भाग में पढ़ें- एक पराये बालक में पुत्रवत आसक्ति , क्या इससे कोई लाभ होगा अथवा कष्ट ही भोगना होगा । जानने के लिये पढ़ते रहें “महाप्रयाण” अपने विचारों से अवगत अवश्य कराये। आगामी भाग दिनांक 26.03.2017 को प्रकाशित किया जाएगा। नोटिफिकेशन प्राप्त करने के लिए फॉर्म अवश्य साइन अप करें। धन्यवाद Previous< >Next
वे अगले दिन प्रातः अंधेरे में ही उठ गए। अपने नित्यकर्म से निवृत होकर कहीं जाने को तैयार हो गए । कुछ देर मन में विचार चलते रहे , न जाने कौन सा विचार फिर उनके मन को भाया और उन्होंने अपने सारे राज चिन्ह यथा मुकुट , कमरबंद , बाजूबंद सीने पर लगने वाला राजकीय सूर्य चिन्ह और अपनी विदारक तक निकाल कर रख दी । राजकीय वस्त्रों को भी त्यागकर साधारण पगड़ी लगा ली और एक साधारण सी तलवार और धनुष बाण अपने शस्त्रों में से उठा लिए और एक आम नागरिक का वेष धारणकर पौ फटने से पहले ही आखेट के लिए निकल गए । वितस्ता के किनारे चलते-चलते वे सघन हरे-भरे वन्य क्षेत्र में पहुंच गए। दिन निकल चुका था किंतु बहुत कम ही सूर्यकिरणे उस सघन वन में भूमि तक पहुंच पा रही थी । उन लंबे-लंबे वृक्षों पर पक्षियों के कलरव और बंदरों ने उस वन को सजीव बना रखा था अन्यथा तो वह निर्जन ही था। निकट बहती वितस्ता, पत्थरों पर से उछलती-कूदती अपना गीत गा रही थी । दूर एक स्थान पर जहां वितस्ता ऊंचे भाग से नीचे गिरती थी , उस झरने की आवाज बढ़ती जा रही थी। रुद्रदेव उस स्थान पर पहुंचे जहां वह झरना गिरकर पहले नीचे एक तालाब के रूप में एकत्रित होता था । उन्हें आज तक जीवन में कभी इतना समय ही नहीं मिला था कि वे इस मनोरम स्थान पर कुछ समय बिता सकें । उन्होंने अपने अश्व से उतरकर उसे तालाब में से पानी पिलाया और स्वयं भी एक पत्थर पर बैठकर मुंह धोकर पानी पिया ।झरने से गिरते जल के बारीक कण वायु के साथ मिलकर हवा में यत्र-तत्र उड़ रहे थे और उन में से होकर तालाब में घुलती सूर्य की किरणें जल में स्वर्ण का आभास दे रही थी। इसे देख वे वहीं एक पत्थर पर बैठ गए और प्रकृति की इस अनुपम कृति में ध्यानमग्न होने का प्रयास करने लगे किंतु मन अब भी इतना विचलित क्यों था....? क्या चाहिए था इसे......? दुविधाओं में बार-बार मन इधर-उधर क्यों भटक जाता था । इन्हीं उलझन में उनका मस्तिष्क भटकता रहा। तभी कलरव से इतर कुछ पत्तों की सरसराहट की ध्वनि उनके कानों में पड़ी , वे सावधान हो गए....... शायद कोई पशु पानी पीने उस ओर आ रहा था। उन्होंने पत्थर की ओर से देखा एक हिरण पानी पी रहा था। उन्होंने अपना धनुष बाण निकाला और उसे लक्ष्य किया परंतु इस हलचल से उसे भय का आभास हुआ और वह पेड़ों के झुरमुट की ओर भागा । रुद्रदेव भी उसके पीछे भागे और अनुमान लगाकर एक बाण झुरमुट की ओर छोड़ा। हिरण की चित्कार सुनाई दी शायद बाण उसे जा लगा था। रुद्रदेव उन पेड़ों की ओर बढ़े जहां वह हिरण मृत था। उसके निकट पहुंचकर उन्होंने उसके शरीर से बाण खींचकर निकाला ...........तब उनका ध्यान उस बान की ओर गया, “यह तो उनका बाण न था, यह कैसे संभव है और कौन है यहां पर.......? ” वे खड़े हो गए तलवार खींचली। तभी एक युवक दौड़ता हुआ वहां पर आया और इस आश्चर्य से रूद्रदेव को देखा जैसे उसे विश्वास ही ना हुआ हो कि कोई अन्य मनुष्य भी इस निर्जन वन में आ सकता है। लगभग उन्नीस-बीस वर्ष उसकी आयु होगी , उसने केवल कटिवस्त्र पहना हुआ था , उसकी भुजाओं , उसके सुडौल कंधों और बलिष्ठ भुजाओं में उसके स्नायु तने हुए थे ,आंखों में नई चमक थी। “ यह मेरा शिकार है ” उसने निर्भीकता से कहा। “ नहीं मेरा शिकार है इसे मेरा बाण लगा है ” रुद्रदेव ने परिहास में बालक से बात आगे बढ़ाने के लिए यूं ही कह दिया । “ नहीं वह लकड़ी का बाण है , आप देखिए इसे मैंने ही बनाया है " “तब तो निर्णय युद्ध से ही होगा ” रुद्रदेव ने अपनी तलवार थोड़ी बाहर की । उसने अपनी कच्चे लोहे की तलवार उठा ली , रुद्रदेव की हंसी छूट गई । “ इस तलवार से युद्ध करोगे तो अवश्य ही हार जाओगे ” “ चाहे मैं कच्चे लोहे की तलवार से युद्ध करूं या लोहे से किंतु हारेंगे आप ही क्योंकि ग्लानि आपके मन में है । आप जानते हैं कि यह बाण मेरा है ।” “बातें तो बड़ी-बड़ी करते हो , क्या नाम है तुम्हारा ? ” “ पहले आप बताइए कि आप कौन हैं क्योंकि ये क्षेत्र मेरा है” “ मैं से..........रुद्रदेव कुछ ठिठके फिर कहा, मैं हरितभूमि से आया हूं मैं वहां शिक्षक हूं । कुछ दिनों का अवकाश लिया है , मेरा नाम ज्ञानेंद्र है। ” “ शिक्षक होकर आखेट ” “अच्छा तार्किक भी हो ! अरे भाई मैं शस्त्र विद्या का शिक्षक हूं । अब तुम बताओ तुम कौन हो ? ” “मैं प्रसेन हूं , यहां निकट एक बस्ती है वहीं रहता हूं ।” “पिता कौन हैं ?” “पिता नहीं हैं , मां के साथ रहता हूं ।” “ इस कच्चे लोहे की तलवार से लड़ना किसने सिखाया ” रुद्रदेव ने उसका परिहास करते हुए कहा । “ मेरे बाबा कहते हैं कि मुझे अब बहुत जल्द बड़ी तलवार उठानी होगी ।” “कौन बाबा ? ” “ मेरे पिता के मित्र , वही हमारा ध्यान रखते हैं और हमें सब साधन उपलब्ध कराते हैं ।” रुद्रदेव बहुत देर तक उससे इधर-उधर की बातें करते रहे और वह बताता रहा। दोपहर बीत गई । “अब मुझे चलना होगा , मां राह देख रही होगी। आज मेरा जन्मदिन है इसीलिए यह हिरन मारा है । कल आइएगा , कल बाकी बातें करेंगे ।” कहकर उसने हिरण को कंधे पर उठा लिया । “ लेकिन इस हिरण को ले जाने का निर्णय कहां हुआ।” “ आप ने हार मान ली है।” उसने कहा , फिर दोनों हंसने लगे । वह चला गया। रुद्रदेव भी संध्या ढलते-ढलते पुनः विराटनगर लौट आए। Previous< >Next ------------ आगामी भाग में पढ़ें- कौन है ये बालक? कहाँ से आया है? रुद्रदेव से क्या लेना देना है इसका ? जानने के लिये पढ़ते रहें “महाप्रयाण” अपने विचारों से अवगत अवश्य कराये। आगामी भाग दिनांक 19.0.3.2017 को प्रकाशित किया जाएगा। नोटिफिकेशन प्राप्त करने के लिए फॉर्म अवश्य साइन अप करें। धन्यवाद Previous< >Next
सेनापति राजसभा में पहुंचे । कुछ समय पश्चात महाराज का सभा में आगमन हुआ । सभी ने खड़े होकर महाराज का अभिवादन किया । कुछ देर बाद राजसभा की कार्यवाही चलती रही, तत्पश्चात सेनापति रुद्रदेव ने अपने स्थान पर खड़े होकर कहा, “ महाराज नगर की सुरक्षा एक सेनापति के लिए सर्वोपरि कार्य है और उस सुरक्षा के साथ ही खिलवाड़ किया जा रहा है । नगर की प्राचीर के नीचे ही नगरप्रमुख ने कुछ लोगों को रहने की अनुमति दे रखी है।” महाराज की आज्ञा के बिना ही नगरप्रमुख बीच में ही तुनककर बोला , “मुझे कोई आनंद नहीं आता ऐसी अनुमति देने में, किंतु महाराज षटकुल की विजय के बाद से नगर में नए लोगों का आवागमन बढ़ गया है और नगर की जनसंख्या भी निरंतर बढ़ती जा रही है तो अधिक लोगों को बसाने के लिए प्राचीर के भीतर और स्थान कहां से लाया जाए ।” “तो कोई और व्यवस्था कीजिऐ , यह आपका काम है किंतु मैं सुरक्षा से कोई समझौता नहीं करने दूंगा।” सेनापति भी कुछ तैश में आ गए । “सुरक्षा सुरक्षा सुरक्षा , आप हमेशा एक ही बात क्यों करते हैं ।” नगरप्रमुख अब सीधे सेनापति के सम्मुख होता हुआ बोला , “सुरक्षा के अतिरिक्त और भी सौ व्यवस्थाएं होती हैं। केवल आपकी तरह युद्ध जीत लेना और अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेने भर से राज्य की व्यवस्था नहीं चलती है ।” सेनापति ने क्रोध में अपनी मुठ्ठियाँ भींच लीं किंतु वह बोलता रहा , “और अब चारों ओर शांति और मैत्री है । कौन सा राज्य हम पर आक्रमण करने वाला है ? आप अनावश्यक ही परेशान रहते हैं और दूसरों को भी करते हैं।” “ बाल्यकाल में पिया माता का दूध, युवावस्था में रक्त बनकर दौड़ता है और यौवन का व्यभिचार वृद्धावस्था में रोग बनता है । ” रुद्रदेव ने कहा फिर आगे कुछ बोलने को हुए उससे पहले महाराज ने बीच बचाव करते हुए कहा, “आप लोग विवाद करने से अच्छा कोई सुझाव बताइए , जिस पर अमल किया जा सके । ” नगर प्रमुख फिर उचककर बीच में बोला, “मेरा विचार है कि नगर के बाहर जो सुदर्शन वन है उसके वृक्ष कटवाकर तथा उसके चारों ओर परकोटा बनवाकर, वहां रहने की व्यवस्था की जा सकती है , वहां निकट ही जल की भी प्रचुर उपलब्धता है ।” यह सुनकर तो सेनापति आपे से बाहर हो गए और नगरप्रमुख की ओर उंगली उठाकर कर्कश स्वर में बोले , “यदि सुदर्शन वन का विचार भी किया ना तो कल से सेनापति का यह पद आप ही संभालना और समरांगण में रक्त देने भी आप ही जाना ।” नगर प्रमुख थोड़ा सिहर गया सेनापति महाराज की ओर घूमे, “और महाराज यदि आपको सुदर्शन बन समाप्त करना ही हो , तो पहले मुझे बुलवाकर मेरा त्याग पत्र स्वीकार कीजिएगा” कहकर सेनापति क्रोध में राजसभा का फर्श रौंदते हुए बाहर की ओर निकल गए। संध्या के समय रुद्रदेव अपने राजमहल की खिड़की में खड़े वितस्ता को निहार रहे थे, उसकी लहरों की ध्वनि यहां तक आ रही थी। सूर्य उसकी लहरों में डूबता जा रहा था और रुद्रदेव का मन भी । बीते पांच वर्षों में सारी सुख-सुविधाएं , राजमहल, सेवक-सेविकाएं उन्हें महाराज ने दी थी परंतु उनके बीच रुद्रदेव उसी प्रकार रहे थे जिस प्रकार जल में कमल रहता है ......निर्लिप्त , अनासक्त । वे इन पांच वर्षों में कहां बदले थे , यह आराम उनके तन को कहां भाता है , उनका मन तो तलवारों और कटार के घावों में ही सुख पाता है और मन ........वह तो बार बार इस राजमहल से निकलकर समरांगण की ओर ही भागता है । लेकिन अब युद्ध कहां ? चारों ओर तो मैत्री है , नगरप्रमुख ठीक ही तो कहता है , अब किस से युद्ध होगा , क्यों होगा ? उनका मन और डूब रहा था , अगर उनमें कुछ बदला था तो बस इतना कि उनके चेहरे पर अब दाढ़ी उग आई थी , कुछ काली - कुछ श्वेत , इसके अतिरिक्त तो सब कुछ वही था । सूर्य पूरी तरह वितस्ता में समा गया था, उन्होंने एक गहरा श्वास छोड़ा और खिड़की बंद कर दी। Previous< >Next ------------ आगामी भाग में पढ़ें- परिस्थितियां बदल रही थीं , राज्य बदल चुका था। क्या इस बदले समय में रुद्रदेव अपने आप को स्थिर रख पाएंगे या कुछ ऐसा कर देंगे जो विराटनगर के आने वाले भविष्य जो निर्धारित कर देगा। जानने के लिये पढ़ते रहें “महाप्रयाण” अपने विचारों से अवगत अवश्य कराये। आगामी भाग दिनांक 05.02.2017 को प्रकाशित किया जाएगा। नोटिफिकेशन प्राप्त करने के लिए फॉर्म अवश्य साइन अप करें। धन्यवाद Previous< >Next वह विशाल निर्जन मरुस्थल जहां सांय-सांय हवा बह रही थी । रेत एक स्थान से उड़कर दूसरे स्थान को सरसराती हुई चली जा रही थी । मरे हुए पशुओं के कंकाल यत्र-तत्र पड़े हुए थे । उस तपते हुए मरुस्थल में रुद्रदेव , आगे बढ़ते जा रहे थे। सामने दीखते उस अगम्य, गगनचुंबी पर्वत की ओर , धीरे-धीरे किंतु बहुत परिश्रम से ....... उसकी कंटीली झाड़ियों में उलझते-निकलते , उस पर्वत के शीर्ष की ओर चढ़ रहे थे। यत्र-तत्र कांटो के लगने से रक्त भी निकल रहा था और मस्तक से पसीना भी किंतु इस सभी से अविचल उन्हें तो पर्वत के शीर्ष पर जाना था क्योंकि इस पर्वत के उस पार अनंत विजय थी , स्वप्नों का नगर था , स्वर्गीय आनंद था। कोई बात उन्हें ना बांध सकती थी , कोई विपदा उन्हें ना रोक सकती थी । वे कई बार गिरे, फिसले , परंतु दृष्टि वहीं पर थी ......शीर्ष पर । आखिरकार निरंतर परिश्रम का फल मिला । वे उस अगम्य पर्वत की चोटी पर थे , जहां सारे जीवन के त्याग और परिश्रम का परिणाम था । कानों में जय-जयकार गूंज रही थी । आनंद की शीतल बयार बह रही थी । उनकी आंखे बंद थीं , केश हवा में लहरा रहे थे । उन्होंने उस शीतलता को शरीर में समेटने के लिए गहरा श्वास भरा , मन के प्रत्येक कोने तक आनंद का अनुभव हुआ और फिर श्वास छोड़ा , आंखें खोलीं परंतु यह क्या सामने तो कुछ दिखाई नहीं देता है ......गहरा धुंधलका है । संभवतया इस धुंध के आगे ही है वह स्वर्ग का साम्राज्य जिसे वह ढूंढ रहे थे । उन्होंने विभ्रम में एक कदम आगे बढ़ाया लेकिन वहां कुछ ना था, भूमि पर पैर न पड़ा और वह नीचे-नीचे, बहुत नीचे गिरते ही चले गए। एक चीत्कार अनायास ही उनके मुख से निकल गई, उनकी आंखे खुल गईं । वे पसीने-पसीने होकर अपनी शय्या पर उठ बैठे । सारे सेवक-सेविकाएं उनकी चीत्कार सुनकर भागते हुए उनके कक्ष में आए ,“ क्या हुआ स्वामी ? कोई स्वप्न देखा क्या ?” “ हां ! एक भयंकर स्वप्न । जाओ, तुम लोग जाओ , मैं ठीक हूं । ” उसके पश्चात उन्हें रात भर निद्रा ना आयी। प्रातः होते ही वे अपना अश्व लेकर नगर में निकल गए। नगर की प्राचीर के सहारे गुजरते हुए उन्हें वह बस्ती दिखाई दी जो उन्हें निरंतर खटकती थी और साथ ही दिखाई दिए निकट खड़े दो सैनिक जो आपस में ठिठोली कर रहे थे। “ किस वाहिनी से हो तुम दोनों ? ” सेनापति की आवाज सुनते ही उनके होश उड़ गए, “जी दक्षिण ” एक सावधान की मुद्रा में कंठ से थूक निगलते हुए बोला । “क्या कर्तव्य इस प्रकार किया जाता है ?” सेनापति ने कंपाने वाली कड़क आवाज़ में कहा। “क्षमा करें महाराज , भूल हो गई । अब कभी ना होगी।” “वह सब ठीक है , अब बताओ कि ये जो लोग नगर की प्राचीर के पास झोंपड़ियां बना कर रह रहे हैं, इन्हें हटाने के लिए हमने आज्ञा की थी । अभी तक पालन क्यों न हुआ उसका ?” सेनापति नगर की प्राचीर के पास बनी झोपड़ियों और खेलते हुए बच्चों की ओर देख कर बोले । “जी हमने उनसे कहा था किंतु इनके पास नगर प्रमुख का अनुमति पत्र है , इसलिए हम इनसे कुछ ना कह पाए ।” “नगर प्रमुख कौन होते हैं राज्य की सुरक्षा से समझौता करने वाले ? नगर सुरक्षा तो हमारा विषय है ।” सेनापति क्रोध में तमतमा उठे। “हम अभी महाराज से बात करते हैं । ” कहकर उन्होंने अपना अश्व राज्यसभा की ओर दौड़ा दिया और जाते जाते कह गये , “अगली बार इस प्रकार लापरवाही ना हो अन्यथा सेवामुक्त कर दिए जाओगे ” दोनों सैनिकों के शरीर में झुरझुरी दौड़ गई। सेनापति सीधे राजसभा में पहुंचे। Previous< >Next ------------ आगामी भाग में पढ़ें- इस स्वप्न का अर्थ क्या है? क्या होगा राजसभा में ? जानने के लिये पढ़ते रहें “महाप्रयाण” अपने विचारों से अवगत अवश्य कराये। आगामी भाग दिनांक 26.02.2017 को प्रकाशित किया जाएगा। ई मेल द्वारा नोटिफिकेशन प्राप्त करने के लिए फॉर्म अवश्य साइन अप करें। धन्यवाद Previous< >Next
षटकुल की शेष बची-कुची सेना अपने प्राण बचाकर भागने लगी। षटकुल के कुछ सैनिक उन विशाल गुलेलों को आग लगाने लगे , जिससे वह किसी के काम ना आ सके । रुद्रदेव ने अपने धनुर्धरों को आज्ञा की, “ एक भी गुलेल नष्ट नहीं होना चाहिए, सबको अपने अधिकार में लो और इनसे नगर के मुख्य द्वार को तोड़ दो” धनुर्धर अपने काम में लग गए। कुशाग्र ने आक्रमण कर सबसे पीछे खड़े हुए षटकुल के सेनापति को सर्वप्रथम बंदी बना लिया था। नगर के मुख्य द्वार के बाहर मैदान में वह घुटनों पर , रुद्रदेव के चरणों में बैठा अपने प्राणों की भीख मांग रहा था । सेनापति रुद्रदेव की आंखों से अंगारे बरस रहे थे । रह-रहकर चैतन्य का वीभत्स शव उनकी दृष्टि के सामने नाच रहा था, हजारों सैनिकों के मृत शरीरों को गिद्ध नोचते हुए दिख रहे थे। ना जाने कब उन्होंने विदारक को म्यान से खींच लिया, कुशाग्र व अन्य सैनिक पीछे हट गए। रुद्रदेव ने नीचे बैठे हुए उस सेनापति के कंधे और गर्दन के बीच में से सीधे विदारक को घुसा दिया, जो उसके हृदय और आँतड़ियों को फाड़ती हुई नीचे गुदा द्वार से बाहर निकल गई और फिर उसे वापस बाहर खींच लिया। भल भल रक्त बाहर उबलने लगा और कुछ क्षणों तक बैठा हुआ उसका शरीर , निश्चेष्ट होकर लुढ़क गया । इधर सैनिकों ने उन गुलेलों की सहायता से नगर के मुख्य द्वार को तोड़ दिया। रुद्रदेव व सेना नगर के प्रमुख मार्गों पर अश्व लेकर दौड़ते हुए , सीधे राजमहल तक पहुंचे । शेष सैनिक नगर में इधर-उधर फ़ैल गए और पूरे नगर को विराट नगर के सैनिकों ने अपने अधिकार में ले लिया। अपनी नंगी तलवार लेकर राजमहल के विशाल गलियारे में होते हुए, रुद्रदेव राजसभा में पहुंच गए। कुशाग्र व अन्य सैनिक भी उनके पीछे उनके साथ ही चल रहे थे । राजसभा में सिंहासन रिक्त था और सभी अधिकारी हाथ जोड़कर घुटनों पर बैठे हुए, उस महाकाल का अवतार लग रहे सेनापति से प्राणदान मांग रहे थे। रुद्रदेव ने उनकी ओर ध्यान ही नहीं दिया और आज्ञा की ,“शतादित्य जहां कहीं हो शीघ्र पकड़ कर लाओ” रुद्रदेव का पूरा शरीर रक्तरंजित था और उनके सिर पर खून सवार था । वे जहां भी चल रहे थे , उनके शरीर का रक्त वहां टपक रहा था और रक्त में सने उनके पदचिन्ह वहां बनते जा रहे थे । चेहरा भयानक लग रहा था , अपने सैनिकों और मातृभूमि के प्रतिशोध की भावना चरम पर थी, आंखों से अग्नि बरस रही थी, कोई उनके सामने देखने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। धर्मग्राम में कटे और जले हुए बच्चों के शव मस्तिष्क को बार-बार झकझोर दे रहे थे। कुछ ही समय में सैनिक राजा शतादित्य , उनकी रानी और पुत्र को पकड़ लाए। “महाराज ये एक गुप्त गुफा से भागने का प्रयत्न कर रहे थे” उन्हें धक्का देकर सेनापति के चरणों में बिठा दिया गया। “शतादित्य को बंदी बना लो, यह विराटनगर का अपराधी है, इसे महाराज दंड देंगे और रानी को रनिवास में भिजवा दो।” आज्ञा का पालन हुआ । शतादित्य का चौदह वर्षीय पुत्र वहीं था , उसको दंड देने के लिए रुद्रदेव ने अपनी रक्त से सनी विदारक उठाई। उपसेनापति कुशाग्र कुछ बोलने को हुआ परंतु रुद्रदेव के अवतार को देखकर उसने अपने होंठ भींच लिए। रुद्रदेव प्रहार करने ही वाले थे कि राजसभा में आवाज गूंजी, “ ठहरो sssss रूद्रदेव” सेनापति को नाम से पुकारने वाला यह कौन आ गया? “ महाराज आप ! ” महाराज कीर्तिवर्धन भीतर प्रवेश कर रहे थे । रुद्रदेव का हाथ अपने स्थान पर ही रुक गया । “हाँ , सेना की द्वितीय पंक्ति नष्ट होने की सूचना मिलते ही हम अपनी सेना लेकर चल पड़े थे कि तुम्हें संभवतया सहायता की आवश्यकता हो किंतु यहां पहुंचकर क्या देख रहे हैं कि तुम बदले की भावना से दग्ध एक निरपराध बालक की हत्या कर रहे हो।” “ हत्या नहीं वध महाराज । शत्रु पक्ष के दस वर्ष से बड़े प्रत्येक पुरुष का वध करना नीतिसंगत है ।” “वध तब होता है, जब शत्रु भी शस्त्र उठाने में समर्थ हो। अतः यह बालक अवध्य है क्योंकि ना तो इस बालक को इसके पिता के कृत्यों की जानकारी है और न ही यह अपने पिता के धूर्त कार्यों में सहभागी है इसलिए यह निरपराध है, इसे दंडित नहीं किया जा सकता।” “कंटक वृक्ष के किसी भी भाग को छोड़ने से वह पुनः उगकर पैरों में चुभने के लिए तत्पर हो जाएगा ।” ”हम भविष्य नहीं जानते रुद्रदेव , किंतु नीति जानते हैं और नीति यही कहती है कि यह बालक दंड का भागी नहीं है। तत्काल इस बालक को और उसकी माता को मुक्त कर दिया जाए ” महाराज ने आज्ञा की। रुद्रदेव सिर झुकाकर पीछे हट गए और तलवार अपनी म्यान में रख ली। बालक पूरे वार्तालाप को उदासीनतापूर्वक सुन रहा था। मृत्यु सिर पर खड़ी होने पर भी उसकी आंखों में भय नहीं था । सैनिक उसे उठाकर ले गए और मुक्त कर दिया । कुछ दिन षटकुल में रुककर महाराज ने एक विश्वस्त को षटकुल का प्रबंधन सौंप दिया और फिर वे सभी विराटनगर लौट गए । वापसी में रुद्रदेव और कुशाग्र अश्वों पर साथ चल रहे थे । “तुम्हें तो दिन के दूसरे प्रहर तक पहुंच जाना चाहिए था फिर संध्या कैसे हो गई” रुद्रदेव ने पूछा। “उस मार्ग पर हमें भी अवरोध का सामना करना पड़ा । शतदित्य ने उस ओर भी अपनी रणनीति के अंतर्गत एक टुकड़ी तैयार कर रखी थी , जो दोपहर तक हमारी ओर से किसी सेना के पहुंचने की प्रतीक्षा करती और किसी के न पहुंचने पर फिर षटकुल के लिए रवाना होती और षटकुल के उस अश्वसेना के आक्रमण के बाद एक अंतिम आक्रमण और होता जो कि विराटनगर की सेना को पूरी तरह समाप्त कर देता। बस इसी टुक़डी को समाप्त करने में हमें थोड़ा समय लग गया।” कुशाग्र कुछ समय के लिए रुका फिर बोला , “किंतु शतादित्य को यह अनुमान नहीं था कि आप सेना का एक चौथाई भाग ही बांध वाले रास्ते से भेज देंगे” “शत्रु को हतप्रभ कर देना ही आधी विजय है कुशाग्र! किंतु तुम्हारे इस विलंब ने हमारे हजारों साथियों के प्राण हर लिए।” रुद्रदेव ने एक ठंडा श्वास छोड़ते हुए कहा। “हां लेकिन मैं समय पर पहुंचा तो सही, यदि मैं तब भी न पहुंचता तो पूरी सेना ही समाप्त हो जाती।” रुद्रदेव ने एक बार घूरकर उसे देखा फिर दोनों शांत हो गए। इधर विराटनगर में उल्लास का वातावरण था । उनका कोई शत्रु अब जीवित न था। महाराज ने रूद्रदेव के आधा पेट भोजन की प्रतिज्ञा की पूर्णाहुती की और उनके सम्मान में पूरे विराटनगर को भोज करवाया । एक सुसज्ज नवीन रथ रुद्रदेव को भेंट किया गया और एक सर्वसुविधाओं से युक्त राजमहल सेनापति के लिए बनवाने की घोषणा की गई। महाराज ने परिहास में सेनापति को उन भौतिक सुखों का आनंद लेने की भी आज्ञा की जिनका उन्होंने आज तक भोग नहीं किया था । चारों ओर खुशी की लहर थी , शांतिकाल आ गया था । इसी शांति काल में विराट नगर और रूद्रदेव के 5 वर्ष बीत गए। Previous< >Next -------------------- आगामी भाग में पढ़ें - क्या यह सुख-सुविधाएं रुद्रदेव को रास आई अथवा यह सब एक बंधन ही था उनके लिए और क्या हुआ 5 वर्ष के पश्चात जानने के लिए पढ़ते रहें, महाप्रयाण। Previous< >Next
धीमान ने फिर अपना गोफण घुमाया , रुद्रदेव नीचे झुक गए , गोला उनके सिर को लगभग छूता हुआ निकट पत्थर से जा टकराया। पत्थर का चूर्ण बन गया , रुद्रदेव उस पत्थर के स्थान पर अपने मस्तक की कल्पना तक न कर सके। भयंकर शक्ति थी उस मनुष्य के भीतर। वे एक क्षण को ठिठके , किंतु वह मनुष्य था भी या नहीं क्योंकि रुद्रदेव ने गौर किया कि उसके गोफण की लोहे की सांखल उसके दाएं हाथ की कोहनी के नीचे के हाथ से आगे जुड़ी हुई है, आगे उसका हाथ है ही नहीं । उसके पास केवल बाँया ही हाथ है , जिससे वह गोले गोफण में रख रहा था और वह हाथ भी बहुत लंबा था। रुद्रदेव ने एक क्षण में सारी परिस्थिति भांप ली । वह एक युद्ध-यंत्र था, जिसे विशेषकर इस युद्ध के लिए तैयार किया गया था , रुद्रदेव को मारने के लिए। तभी तो वह रुद्रदेव का ध्वज देखकर सीधे उस ओर आ गया था । “उससे दूर लड़ना ठीक नहीं क्योंकि उसके हाथों व गोफण की पहुँच बहुत लंबी है इसलिए इसके निकट से ही वार करना होगा” रूद्रदेव अपनी तलवार संभालकर उसके चारों ओर घूमते हुए विचार कर रहे थे। वे चारों ओर घूमते हुए धीरे-धीरे उसके निकट हो गए। एक हाथ से दूसरे हाथ में तलवार लेते हुए तलवार हवा में लहरा रहे थे । उसकी दृष्टि निरंतर रुद्रदेव पर जमी हुई थी । उसकी पुतलियां रुद्रदेव के अनुसार ही इधर-उधर हिल रही थीं। रुद्रदेव की गतिविधिया निरंतर तेज और तेज होती जा रही थीं। वे उसके बहुत निकट पहुंचने का प्रयास कर रहे थे लेकिन इसके पहले ही उसके बाएं हाथ का एक भरपूर मुष्टिका प्रहार रुद्रदेव के सीने पर हुआ। रुद्रदेव तोप के गोले की तरह छूटते हुए दूर जा गिरे, लगा हृदयाघात हो गया। ह्रदय रूकते-रूकते बचा परंतु हृदय पर हुई धम्म की ध्वनि उनके पूरे शरीर ने सुनी, मुंह से कुछ रक्त भी बाहर आ गया। वे ह्रदय पर हाथ रखकर जैसे-तैसे एक घुटने पर उठने का प्रयास करने लगे कि पुनः गोफण से गोला छूटा, वे जैसे थे वैसे ही लेट गए , गोला सीधा निकल गया । माथे से पसीना बह रहा था और आंखों में क्रोध की अग्नि धधक उठी थी किंतु द्वंद युद्ध का एक ही नियम है कि शरीर को गर्म रखा जाय और मस्तिष्क को ठंडा । उन्होंने तुरंत स्वयं को संयत किया और गहरी श्वास लेकर मस्तिष्क तक अतिरिक्त प्राणवायु पहुंचाई । वे उठ खड़े हुए और पुनः एक-दूसरे पैर पर उछलते हुए उसके चारों ओर घूमने लगे। “ इसके गोफण को इसके शरीर से अलग कर इसे हल्का करना होगा।” उन्होंने तेजी से गोल घूमते हुए अचानक नीचे बैठ उसके दाएं हाथ पर भरपूर प्रहार किया। उसका हाथ हल्का सा कटा ना उसने चीत्कार किया ना उसके मुख से कोई शब्द निकला, उसे शायद दर्द भी नहीं होता था । रुद्रदेव अब बहुत तेजी से उसके चारों ओर गोल घूम रहे थे, वे कभी उसके पीछे होते, वह जब तक घूम कर उन्हें देखता वे कहीं और होते । उसे भ्रमित कर रुद्रदेव ने पुनः एक प्रचंड प्रहार उसी स्थान पर किया। सांखल के भार के कारण और इस प्रहार से उसका आधा हाथ कटकर लटक गया। आधे भाग का मांस खिंचकर फटता हुआ स्पष्ट दिखाई दे रहा था । इस बार संभवतया उसे कुछ कष्ट हुआ, उसने अपने हाथ को देखा। तब तक बहुत फूर्ति से रूद्रदेव ने उसके बहुत निकट पहुंचकर पुनः वहीं प्रहार कर दियाऔर वह हाथ कटकर भूमि पर गिर गया परंतु इस बार रुद्रदेव उसकी बाएं हाथ की पकड़ में आ गए । उसने अपना बायां हाथ रुद्रदेव की पीठ पर रख कर , उन्हें अपने सीने पर लगे कवच के साथ टकराकर दूर फेंक दिया । उसके कवच पर लगे छोटे-छोटे नुकीले भाले रुद्रदेव के कवच को फाड़ते हुए उनके सीने कंधे व पेट में घुस गए , सिर जाकर भूमि से टकरा गया। शरीर के हर कोने से रक्त बहने लगा, रूद्रदेव भूमि पर औंधे मुंह गिर गए । उनकी तलवार भी न जाने कहां फिंक गई , सिर से बहता रक्त पलकों के आगे टपकने लगा जिसमें से होकर सारी युद्धभूमि लाल दिख रही थी । धूल और रक्त के मिश्रण ने उस योद्धा का श्रृंगार कर दिया था । तीव्र रक्त स्त्राव से मूर्छा आने लगी थी । आंखें बंद हो रही थीं, मांसपेशिया शिथिल होने लगीं , हृदय की धड़कन बंद हो गई, प्राणों को निकलने के लिए शरीर के कपाट खुलने लगे , गिद्धों की ध्वनियां कानों तक आने लगीं किंतु मस्तिष्क शांत था , शांत था इसलिए रक्त प्रवाह तीव्र नहीं था , रक्त प्रवाह तीव्र नहीं था अतः रक्तस्त्राव भी अधिक नहीं था , अतः कार्यरत था । तब मस्तिष्क से एक चीख उठी , एक आज्ञा , “नहींssssss , अभी नहींssSsss। इस युद्ध के समाप्त होने से पहले तो बिल्कुल नहीं ” वह चीत्कार पूरे शरीर ने सुनी । ह्रदय ,पेट , आँतें , हाथ-पैर, हर मांसपेशी तक पहुंची। आज्ञापालन हुआ, शरीर के कपाट पुनः बंद होने लगे , ह्रदय स्पंदित होने लगा, मांसपेशियां कसने लगीं , आंखें खुल गयीं । नथुनों से निकलती हुई वायु से धूल उड़ी । दोनों हाथों की मुट्ठियां कसीं और कसकर भूमि पर टिक कर शरीर को उठाने लगी। धीमान के लिए किसी मनुष्य को मारने के लिए इतना प्रहार पर्याप्त था किंतु उसने जब रुद्रदेव को उठते देखा तो वह उनकी ओर दौड़ा , इस बार पैर से उनका सिर ही कुचलने की योजना थी। रुद्रदेव घुटनों पर थे , उसने अपना दांया पैर उठाया.............. किंतु तभी....... एक तलवार पीछे से उसकी दाएं पैर की जंघा के आर-पार हो गई । उसने पीछे पलटकर देखा तो उस तलवार की मूठ रुद्रदेव के सेवक चैतन्य के हाथ में थी , उस राक्षस के क्रोध की कोई सीमा न रही, उसके अंतिम प्रहार में बाधा आ गई । उसने अपने बाएं हाथ से चैतन्य का गला पकड़ कर ऊपर उठा लिया । इधर रुद्रदेव सावधान हो गए, उन्हें समय मिल गया। आसपास कोई अस्त्र-शस्त्र न दिखा। धीमान का हाथी मृत पड़ा था , उसके नुकीले दांत को दोनों हाथों से रूद्रदेव खींचने लगे। उधर धीमान ने चेतन्य का गला भींच दिया, उसकी आंखें बाहर आ गई, जीभ लटक गई । उसने चैतन्य की गर्दन को इतना जोरदार झटका दिया कि उसका मस्तक टूटकर धीमान के हाथ में रह गया और शरीर भूमि पर गिर गया। गर्दन से रक्त टपक रहा था , आसपास युद्धरत हर सैनिक की आत्मा काँप गई । वो पलटकर रुद्रदेव की ओर बढ़ा । रुद्रदेव ने सारी शक्ति लगा कर दाँत हिला दिया, उसकी मज्जा में ढीला हुआ किंतु बाहर ना निकला । धीमान निकट आ रहा था, रुद्रदेव ने अब की बार सारी मांसपेशियों की शक्ति को हाथों में एकत्रित किया , सारी शिराएं फूलकर बाहर फट पड़ने को आतुर थीं , रक्त का प्रवाह बढ़ा तो शरीर के घावों पर लगी मिट्टी को हटाकर रक्त पुनः भल-भल शरीर से निकलने लगा। धीमान ने निकट आकर उसी प्रकार रूद्रदेव की भी गर्दन पकड़ ली और उसे भींचने लगा । हाथी दांत पर से पकड़ ढीली पड़ गई , लेकिन फिर शरीर फड़फड़ाया , पकड़ मजबूत हुई , दांत की जड़ से रक्त के फव्वारे छूट गए, दांत उखड़कर बाहर आया और पलक झपकने से पहले रुद्रदेव ने उसे धीमान के सीने में गाड़ दिया। धीमान ने उस गड़े हुए दांत को देखा , गर्दन की पकड़ ढीली हो गई , दो-तीन कदम पीछे हटा , लड़खड़ाया और धम्म करके भूमि पर गिर गया ...............अंत । रुद्रदेव ने चैतन्य के क्षत-विक्षत मस्तक को देखा, देखा ही न गया । रक्त , स्वेद और अश्रु की त्रिधार से मुख की मिट्टी धुलने लगी । धीमान के मरने से उन्होंने चैन की एक सांस छोड़ी और सीधे खड़े हुए । बहुत देर बाद उनका ध्यान शेष युद्ध की ओर गया। “ हे शम्भू, ये क्या" षटकुल की गजसेना ने विराटनगर की प्रथम व द्वितीय पंक्ति को समाप्त कर दिया था और इस प्रयास में षटकुल की गज सेना का भी अंत हो चुका था। यत्र-तत्र शवों के अंबार लग गए थे । विराटनगर की अब केवल तृतीय पंक्ति ही शेष थी और वह भी व्यूह स्वरुप में ना होकर अस्त-व्यस्त हो रही थी। उन्होंने अपनी विदारक हाथी के पैर से खींची और अश्व पर चढ़कर तृतीय पंक्ति की ओर अश्व दौड़ा दिया। आसपास के सैनिकों को काटते हुए वे तृतीय पंक्ति के निकट पहुंचे और पूरी प्राण शक्ति से अपना शंख फूंक दिया। जोर से चिल्लाकर तृतीय पंक्ति को व्यूहस्वरुप में आने की आज्ञा की । सेना में कुछ उत्साह का संचार हुआ, तभी सामने षटकुल की ओर से धूल का बादल उठता हुआ दिखाई देने लगा । “अब यह क्या है ?” षटकुल की नई अश्व सेना चली आ रही थी। तृतीय पंक्ति के हाथ-पैर फूल गए । वाम और दक्षिण सेनाप्रमुख अपनी-अपनी वाहिनी छोड़कर दौड़ते हुए रुद्रदेव के पास पहुँच गए। “अब क्या होगा ,सेनापति ?” रुद्रदेव के पास कोई उत्तर न था विराटनगर की पूरी सेना और सभी अधिकारी स्तब्ध से खड़े उस अश्व सेना को अपनी ओर बढ़ते हुए देख रहे थे । पराजय का हल्का सा भय रुद्रदेव के मन में उठा, उन्होंने आंखें बंद कर लीं और कुछ क्षण पश्चात आंखें खुलीं तो अश्व सेना को और स्पष्ट देखा जा सकता था । रुद्रदेव ने आकाश की ओर देखा सूर्यदेव अस्ताचल की ओर थे । वे मन में बुदबुदाये, “ हे महादेव!” अचानक अश्व सेना की अंतिम पंक्ति के सवार चलते-चलते नीचे गिर पड़े, फिर उसके आगे वाली पंक्ति के सवार भी टपाटप नीचे गिरने लगे । यह क्या हुआ ........... अश्व सेना के पीछे से बाणों की वर्षा हो रही थी और वे कुछ समझ पाते उससे पहले ही वे समाप्ति की कगार पर आ गए। पीछे से कुशाग्र के नेतृत्व वाली विराट नगर की पच्चीस हजार की विशाल सेना का आक्रमण हो गया था। Previous< >Next ------------ आगामी भाग में पढ़ें- क्या हो गयी विजय? जानने के लिये पढ़ते रहें “महाप्रयाण” संभव नहीं की आपको पसंद न आये । अतः अपने विचारों से अवगत अवश्य कराये। आगामी भाग दिनांक 12.02.2017 को प्रकाशित किया जाएगा। ई मेल द्वारा नोटिफिकेशन प्राप्त करने के लिए फॉर्म अवश्य साइन अप करें। धन्यवाद Previous< >Next
सेनापति किस व्यूह स्वरुप में थे बताना कठिन था क्योंकि उनके ध्वज नीचे कर दिए गए थे , केवल आज्ञा ध्वज जो कि प्रत्येक व्यूह प्रमुख के पास थे , समय-समय पर ऊँचे किए जाते थे। जिससे सभी व्यूह स्वरूपों के धनुर्धारी दल को एक साथ आज्ञा की जाती थी। एक व्यूह स्वरुप के दाएं भाग पर एक विशेष तुरही बजती और दो ढालों के मध्य रास्ता बनता जिसमें से सेनापति और उनके सेवक निकलते और ठीक वैसा ही मार्ग निकट के व्यूह स्वरुप में बनता जिसमें से सेनापति अंदर चले जाते थे और वह छोटे-छोटे किले पुनः अभेद्य हो जाते थे। सेनापति ने प्रत्येक व्यूह स्वरुप में पहुंचकर उनके मनोबल को आकाश से भिड़ा दिया और ऐसा ही कार्य दक्षिण सेना प्रमुख सुदीप्त और वाम सेना प्रमुख अरिंदम भी कर रहे थे। सैन्य आगे बढ़ता हुआ षटकुल की सेना में जा घुसा था। रुद्रदेव अपनी सेना के प्रदर्शन से प्रसन्न अवश्य थे किंतु सूर्यदेव सिर पर आ चुके थे इसलिए कुछ चिंता की सिलवटें भी उनके माथे पर थीं। कुछ समय से सेनापति अनुभव कर रहे थे कि षटकुल की सेना बहुत धीरे किंतु नियमित रुप से आधी- आधी दाएं और बाएं हट रही थी और मध्य में स्थान बनाया जा रहा था। “क्या कोई व्यूह रचा जा रहा है? कोई अनुमान नहीं था।” षटकुल का सेनापति अपने रथ पर सेना के सबसे पीछे खड़ा था। अपनी इतनी विशाल सेना होने के बाद भी उसके मन में कहीं न कहीं भय था। “असत्य की नींव पर खड़े राज्य की दीवारें सदैव भय से खोखली ही रहती हैं, चाहे उन पर ऊपर से अतिरिक्त सुरक्षा का कितना ही लेप लगा दिया जाए ।” सेनापति ने धरती में कुछ कम्पन अनुभव किया। उन्होंने एक सैनिक को व्यूहस्वरूप से ऊपर उठकर बाहर देखने की आज्ञा की । जैसे ही उसने अपना सर व्यूह स्वरूप से बाहर निकाला , एक लोहे का गोला बहुत तेजी से उसके माथे से आकर टकराया और उसके सिर के परखच्चे उड़ गए और अगले ही क्षण सारे विभिन्न स्वरूपों से एक जबरदस्त टक्कर हुई। कई ढालें टूट गई, कई सैनिक उछलकर पीछे गिर गए। टक्कर इतनी जोरदार थी कि व्यूह स्वरूपों का उन्हें संभाल पाना कठिन था । कुछ ही क्षणों में उससे भी तेज़ टकराव व्यूह स्वरुप से हुआ। हाथियों के चिंघाड़ने की आवाज ने आकाश हिला दिया । रक्त और मांस के लोथड़े उड़ गए। षटकुल की गज सेना का आक्रमण हुआ था । दूसरे टकराव ने तो उन अभेद्य स्वरूपों को सर्वथा कुचल दिया। हाथियों की प्रथम पंक्ति ने यह टकराव किया । अधिकांश हाथी व्यूह स्वरूप के आगे निकले हुए भालों से घायल हो गए अथवा मर गए परंतु उन्होंने अपना काम कर दिया। व्यूह स्वरूप बिगड़कर तितर-बितर हो गए थे । विराटनगर के सैनिक इधर उधर भागने लगे। अब गजसेना की तृतीय पंक्ति के आक्रमण का समय था । द्वितीय पंक्ति के मध्य एक कवच जड़ित गज पर षटकुल का गजप्रमुख धीमान बैठा था। इसके बारे में रूद्रदेव ने सुना अवश्य था पर देखा आज पहली बार । वह हाथी जैसा ही विशालकाय था और उतना ही शक्तिशाली । उसका हाथी बहुत तेज दौड़कर सैनिकों को कुचल रहा था और वह स्वयं एक लोहे का गोफण लेकर उससे बड़े-बड़े लोहे के गोले फेंक रहा था । एक गोले से दो-दो , तीन-तीन सैनिकों के मस्तक या हाथ पैरों को चकनाचूर कर रहा था । “यह आक्रमण अगर कुछ देर और चला तो यह युद्ध यहीं समाप्त समझो ” रुद्रदेव ने विचार किया। “सबसे पहले तो इस राक्षस से निपटना होगा ” रुद्रदेव ने आज्ञा की तो उनके दोनों ध्वजवाहकों ने ध्वज ऊँचे कर दिए और तुरही बजाना प्रारंभ की। धीमान का ध्यान रुद्रदेव की ओर गया तो वह अपने गज को उनकी ओर लेकर भागा। उन्होंने अपने ध्वजवाहक को आज्ञा की, “मेरे पीछे का स्थान भागने के लिए रिक्त करवाओ” उदय ध्वज छोड़कर दौड़ा। एक और ध्वजवाहक , सेनापति का विश्वस्त चैतन्य उनके साथ ही था। धीमान का गज सचमुच बहुत तेज था। कुछ क्षणों में वो रुद्रदेव के पास आ गया। रुद्रदेव तेज़ी से पीछे की ओर हट रहे थे , धीमान उनके पीछे ही था। उसने अपने गोफण से रूद्रदेव को निशाना बनाया , रुद्रदेव फुर्ती से मार्ग से अलग हो गए और गोला सीधा चला गया । रुद्रदेव भागते रहे , धीमान ने तत्काल दूसरा गोला चलाने की तैयारी की । हाथी रुद्रदेव के निकट पहुंच चुका था, वह अगला पैर रुद्रदेव के सिर पर रखता उससे ठीक पहले उसी गति से रुद्रदेव दायीं ओर कूद गए। हाथी झोंक में कुछ आगे निकल गया । वह पलटता उससे पहले रूद्रदेव ने खड़े होकर अपनी विदारक तलवार से हाथी के पिछले पैर पर वार किया। हाथी चिंघाड़ा किंतु फिर भी पलटा और अपना पैर रुद्रदेव को कुचलने के लिए उनके सर तक उठाया । रुद्रदेव ने अपनी तलवार सिर पर खड़ी कर ली, हाथी ने पैर नीचे किया और रुद्रदेव ने तलवार ऊपर। विदारक सीधी की सीधी खड़ी , हाथी के पैर में घुस गई । उसका केवल मूठ बाहर रह गया । हाथी चिंघाड़ा उसका संतुलन बिगड़ा और वह अपने दांयी ओर धूल उड़ाता हुआ जोरदार आवाज के साथ भूमि पर गिर गया । धीमान इतने समय में हाथी से कूदकर रुद्रदेव के सम्मुख आ गया था। वह रुद्रदेव से लगभग दोगुना बड़ा था, ऊंचाई में भी और चौड़ाई में भी । केश उसके कमर तक थे, काला रंग और शरीर पर भी ऊपर से नीचे तक केश थे । पूरा राक्षसी अवतार , दो दांत और लगा देते तो बिल्कुल हाथी दिखाई देता। रुद्रदेव ने अपनी अपनी दूसरी तलवार म्यान से खींची। Previous< >Next -------------- आगामी भाग में पढ़ें:- क्या यह विशाल राक्षस रुद्रदेव को समाप्त कर देगा अथवा रुद्रदेव ही उसका काल बन जाएंगे। जानने के लिए पढ़ते रहें “महाप्रयाण” आपके द्वारा दिया गया प्रोत्साहन ही हमारी ऊर्जा है कृपया इसे निरंतर देते रहें। आगामी भाग दिनांक 29.01.2017 को प्रकाशित किया जाएगा। ई मेल द्वारा नोटिफिकेशन प्राप्त करने के लिए फॉर्म अवश्य साइन अप करें। धन्यवाद Previous< >Next
सेना के आगे अपने अश्व को दौड़ाकर सेनापति रुद्रदेव ने आदेश दिया, “व्यूह स्वरूप बनाओ” उनके पीछे दोनों ओर चल रहे ध्वजवाहक सैनिकों ने अपने ध्वज ऊँचे कर दिए और हाथ में पकड़ी हुई तुरही से एक विशेष ध्वनि की। रुद्रदेव सेना के उत्तर से दक्षिण छोर की ओर लगातार दौड़ते हुए सेना को स्वरूप बनाने का निर्देश दे रहे थे । नदी से सैनिकों का आना अब भी जारी था , वे सेना में पीछे की ओर सम्मिलित होते जा रहे थे। शत्रु की पत्थर गुलेलें बहुत विशालकाय पत्थरों को फेंकने के लिए बनाई गई थी इसलिए वह स्वयं बहुत स्थूल थीं , उन्हें एक स्थान पर रखकर उनका निशाना एक बार निश्चित किया जा सकता था । वे बार-बार निशाना बदलने के लिए नहीं बनी थीं और शत्रुपक्ष ने उनका निशाना नदी के उन लकड़ी के पुलों को ही बना रखा था , उनसे विराटनगर की सेना को बहुत नुकसान भी हुआ परंतु एक बार नदी पार कर लेने के बाद उन गुलेलों से खतरा नहीं था । अब दूसरे आक्रमण का समय था। शत्रु सेना की तुरही बजी और उनकी धनुष सेना ने अपना काम किया । एक साथ छोड़े गए असंख्य तीर रुद्रदेव की सेना की ओर आने लगे , रुद्रदेव ने आकाश की ओर देखा और फिर एक हल्की सी मुस्कान के साथ अपने सैनिकों के प्रोत्साहन में जुट गए । आकाश से आते हुए सारे तीर विराटनगर की सेना से कुछ दूर गिरकर निष्प्रभ हो गए। षटकुल की एक बड़ी चूक , विराटनगर की सेना उनसे इतनी दूरी पर थी कि उनके तीर वहाँ तक नहीं पहुंच पा रहे थे और उनकी गुलेलों का निशाना सेना के पीछे नदी पर था अर्थात यह बीच का भाग एक सुरक्षित स्थान बन गया था । तीरों को सेना तक पहुंचाने के लिए या तो षटकुल की सेना को आगे आना पड़ता, जो कि वे करना नहीं चाहते थे या विराटनगर की सेना आगे बढ़े, जो कि यह बिना सुरक्षा के करेंगे नहीं । षटकुल से ऐसी भूल की उम्मीद तो रुद्रदेव को भी नहीं थी किंतु इस भूल से रूद्रदेव को पर्याप्त समय मिल गया था। विराटनगर की सेना ने लगभग दो-दो हज़ार सैनिकों के चौकोर स्वरूप बना लिए , जिसमें किनारे के चारों भागों पर विशेष रुप से बनवाई गई ढालों को लेकर सैनिक खड़े थे । उन ढालों के दो पकड़ने के हत्थों में से एक , एक सैनिक के दाएं हाथ में था और दूसरा हत्था, दूसरे सैनिक के बाएं हाथ में और बचे हुए हाथ में एक-एक भाले थे , जो सामने की ओर नोक किए हुए थे । इन ढ़ालों से उस चौकोर का चारों ओर का भाग ढँक गया था । इसी तरह चौकोर के बीच में भी सैनिकों ने ढ़ालों को छत की भांति पकड़ रखा था। इस प्रकार ये चौकोर स्वरूप आगे-पीछे , दाएं-बाएं और ऊपर से अभेद्य हो चुके थे। किनारे के ढाल वाले सैनिकों के पीछे तलवारधारी सैनिक थे और चौकोर के बीचों-बीच अति प्रशिक्षित विशेष धनुर्धारी दल था। ऐसे असंख्य चौकोर पूरी सेना ने बना लिए थे और अब सेना आगे चल रही थी । जैसे ही विराट लनगर की सेना आगे बढ़ी पुनः षटकुल के तीरों की वर्षा आरंभ हो गई। अब तो सेना उन तीरों की पहुंच में भी आ चुकी थी परंतु इस बार वे तीर इस अभैद्य चौकोर की ढालों से ढंकी छत पर गिरकर निष्प्रभ हो रहे थे परंतु फिर भी बाणवर्षा निरंतर जारी थी। शत्रु सेना की दो बाणवर्षा के बीच जो समय मिला उसमें सेनापति ने आज्ञा दी , “धनुष सेना” तुरही बजी, ध्वज ऊँचे हुए और आज्ञा पाते ही प्रत्येक व्यूह स्वरूप की छत वाली ढालों को हटाया गया। कुशलतम धनुर्धारी सैनिकों को कुछ ऊपर उठाया गया और उन्होंने शत्रु सेना के प्रमुखों व दल रक्षकों को सीधा निशाना बना दिया । बाण छोड़ते ही सभी दलों में धनुर्धर एक साथ पुनः व्यूह स्वरूप में चले गए और तुरंत ही छत की ढालों को बंद कर दिया गया। सब कुछ इतना चमत्कारिक और अनुशासनात्मक ढंग से हुआ कि किसी को कुछ समझ ना आया । अब सामने वाली सेना के बाणों के लिए व्यूह स्वरूप फिर से अभैध हो गए, यह क्रम निरंतर चलता रहा। सेना लगातार आगे बढ़ रही थी। इन व्यूह स्वरूपों से विराटनगर की सेना का लगभग ना के बराबर नुकसान हुआ परंतु षटकुल को अच्छी-खासी प्राण हानि हुई थी। विराटनगर अपनी इस युक्ति से नदी में हुई अपनी प्रारंभिक हानि से उबर चुका था बल्कि उसने अपेक्षाकृत कुछ अधिक ही नुकसान पहुंचा दिया था। Previous< >Next --------------- आगामी भाग में पढ़ें- अब तो दोनों पक्षों की स्थिति लगभग बराबरी की हो चुकी थी । अब कौन सा नवीन पैंतरा उपयोग करेंगे रुद्रदेव अथवा उनका ही पैंतरा उन पर भारी पड़ेगा। जानने के लिये पढ़ते रहें “महाप्रयाण” आपके द्वारा दिया गया प्रोत्साहन ही हमारी ऊर्जा है कृपया इसे निरंतर देते रहें। आगामी भाग दिनांक 22.01.2017 को प्रकाशित किया जाएगा। ई मेल द्वारा नोटिफिकेशन प्राप्त करने के लिए फॉर्म अवश्य साइन अप करें। धन्यवाद |
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