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वो एक बहुत बड़ा सभागार था जहां आज यह आपातकालीन बैठक बुलाई गई थी । सभागार की छत बहुत ऊंची थी और विशाल खंभों पर टिकी थी । इसकी छत , खंभों और दीवारों पर विराटनगर के महाराज कीर्तिवर्धन की यशोगाथाऐं चित्रित थी । सभागार के पूर्वी भाग में स्थित मंच पर राजसिंहासन पर महाराज कीर्तिवर्धन विराजमान थे तथा मंच पर उन के निकट एक सादे आसन पर राजपुरोहित आचार्य बाणभट्ट विराजित थे । मंच के सामने चार सीढ़ियां नीचे दोनों ओर पंक्तिबद्ध आसन लगे थे जिन पर विराटनगर के समस्त मंत्रीगण तथा अन्य पदाधिकारी विराजमान थे । वैसे तो इस सभागार में राजसभा का आयोजन किया जाता था किंतु आज की सभा में कुल मिलाकर बीस – पच्चीस लोग थे । दास-दासियों का प्रवेश भी बैठक में वर्जित रखा गया था, कोई नहीं जानता था कि बैठक किस बारे में है सारे सभागार में सन्नाटा व्याप्त था , सब की दृष्टि महाराज पर टिकी थी । वैसे तो महाराज का मुख तपस्वियों की भांति तेज और आभा से मंडित था किंतु आज उनका मुख म्लान लग रहा था, वो अब भी लंबे समय से सेनापति रुद्रदेव के इस प्रश्न पर विचारमग्न थे कि यदि आज हम पर पड़ोसी राष्ट्र का आक्रमण होता है तो क्या हम उसका उत्तर दे पाने में सक्षम है । सेनापति रुद्रदेव सभागार के बीचो-बीच खड़े थे और आज की बैठक उन्हीं के निवेदन पर आमंत्रित की गई थी । सेनापति यूं तो सहृदय व्यक्ति थे परंतु विभिन्न युद्धों में उनके चेहरे व सीने पर लगे घाव तथा उनकी बड़ी बड़ी मूछें उन्हें क्रूर बनाने के लिए पर्याप्त थे । सारा विराटनगर सेनापति के युद्धकौशल, वीरता और बुद्धिचातुर्य का ऋणी था । उन्होंने अनेक बार आक्रमणकारियों से विराटनगर की रक्षा की थी और अनेक राज्यों पर आक्रमण कर विराटनगर की कीर्ति को बढ़ाया था इसलिए सभी उनका सम्मान करते थे । उन्होंने अपनी गंभीर आवाज में सम्मान का पुट देकर कहा, "महाराज, आप हमारे अन्नदाता हैं किन्तु राष्ट्रहित से प्रेरित होकर मैं आपसे कुछ प्रश्न करने का साहस कर पा रहा हूं ।” कुछ रूककर उन्होंने कहा, “आपने पिछले कुछ वर्षों से सेना का खर्च आधा कर दिया, नए सैनिकों की भर्ती पर रोक लगा दी है, नए अस्त्र-शस्त्र व सेना योग्य पशुओं के क्रय पर पाबंदी है, ऐसे में आज यदि शत्रु आक्रमण करता है तो हम इतने अल्प साधनों में उसका सामना कैसे करेंगे । मैं इतने वर्षों से चुप रहा किंतु अब निकटवर्ती राज्य षटकुल के राजा की नीयत ठीक दिखाई नहीं पड़ती । आये दिन उनके द्वारा हमारी सीमा में उत्पात मचाया जाता है, हमारे सीमावर्ती नागरिकों को परेशान किया जाता है, उनके पशुओं का हरण किया जाता है, सीमावर्ती क्षेत्र आतंकित हैं । महाराज , आपकी सहनशक्ति अनंत है आप राजा हैं किंतु मैं एक साधारण सैनिक हूँ और इस बात से मेरे भीतर अत्यधिक क्रोध उत्पन्न होता है कि कोई अपने गंदे पैर मेरी मातृभूमि के आंचल पर रख रहा है अतः आप कृपा कर उत्तर दें ।” “हम्म, तो क्या चाहते हो” महाराज ने हुंकार भरते हुए पूछा । “मैं अपने लिए कुछ नहीं चाहता लेकिन राष्ट्रहित में कुछ महत्वपूर्ण निर्णयों की आवश्यकता है , पहली तो यह कि सेना पर होने वाले खर्च को दुगना किया जाए, सेना पर से समस्त पाबंदियां हटाई जाए, विशेष अस्त्र-शस्त्र क्रय करने के लिए विशेषज्ञ दूतों को पश्चिम की ओर भेजा जाए, सीमावर्ती क्षेत्रों में पहरेदारी के लिए नए सैनिकों की भर्ती की जाए और इन बीते वर्षों में मैंने जो योद्धा तैयार किए हैं उन्हें प्रशिक्षक के रुप में शासन की सेवा में रखा जाकर उचित मानदेय दिया जाए और सबसे अंतिम व सबसे महत्वपूर्ण बात की मेरे अधिकार क्षेत्रों में वृद्धि की जाए जिस से हर बार सेना संबंधी निर्णय लेने के लिए मुझे मंत्रिमंडल की बैठक का आह्वान न करना पड़े ।” महाराज के निकट बैठे राजपुरोहित ने आगे होकर महाराज के कान में कुछ कहा, महाराज ने अपना सिर हिलाकर उनका समर्थन किया और फिर बोले, "आपकी शेष सभी मांगे मेरी तरफ से स्वीकृत कर मंत्रिपरिषद को अनुमोदनार्थ प्रेषित करता हूं किंतु आप की अंतिम मांग को अस्वीकृत किया जाता है यद्यपि मैं यह जानता हूं कि इसमें आपका कोई स्वार्थ नहीं है तथा आप अपने अधिकारों का दुरुपयोग नहीं करेंगे परंतु राष्ट्र का जितना दायित्व सेना पर है उतना ही राजा और मंत्रिपरिषद् पर भी है, अतः किसी एक के निर्णय लेने से व्यवस्था चरमरा सकती है ।” उन्होंने मंत्रिपरिषद के सदस्यों कि ओर मुखकर पूछा, “मंत्रिपरिषद का इस बारे में क्या कहना है” संपूर्ण मंत्रिपरिषद ने हाथ उठाकर “साधु-साधु महाराज” कहकर महाराज के निर्णय को अनुमोदित किया और सभा समाप्त की गई । Next> आगामी अंक दिनांक ०२/११/२०१६ को प्रकाशित किया जाएगा , कृपया हमारे साथ बने रहें और अपने अमूल्य सुझावों से हमें अवगत कराते रहें ।
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