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“क्या आज्ञा है राजन, कैसे मुझे स्मरण किया?”, राजपुरोहित अपनी गंभीर वाणी में बोले। “ हमने सेनापति को षटकुल पर आक्रमण की योजना बनाने के लिए कहा था, उन्होंने अपनी योजना बना ली है। अब हम चाहते हैं कि आप हमें अपने ज्योतिष ज्ञान से युद्ध का शुभ मुहूर्त निकाल कर दें , जिससे शत्रु पर हमारी विजय सुनिश्चित हो।" महाराज की बात सुनकर राजपुरोहित ने अपनी आंखें मूंद लीं और ध्यान की अवस्था में चले गए। महाराज और रुद्रदेव शांत होकर बैठे रहे । कुछ समय पश्चात उन्होंने अपनी आंखें खोलीं और बोले, “मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा अर्थात आज से छः माह पश्चात युद्ध आरंभ करना होगा। सर्वोत्तम तिथि है, विराटनगर की विजय होगी, शत्रु नतमस्तक होगा। हां, लेकिन एक बात याद रहे" , राजपुरोहित ने प्रश्न चिन्ह लगाया । “उस तिथि के बाद किसी भी स्थिति में युद्ध प्रारंभ ना किया जाए अन्यथा अनर्थ होगा क्योंकि बाद में मलमास प्रारंभ होगा और नक्षत्रों की स्थिति भी अनुकूल न रहेगी” , राजपुरोहित ने चेतावनी दी। “ ठीक है तो मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा को ही युद्ध प्रारंभ किया जाएगा। सेनापति! क्या इतना समय आपकी तैयारियों के लिए पर्याप्त है।" “ जी महाराज इतना समय पर्याप्त होगा”, तीनों की सहमति से युद्ध की तिथि सुनिश्चित कर दी गई। तिथि निश्चित होने के कुछ दिवस पश्चात सेनापति रुद्रदेव युद्ध की अन्य तैयारियों को देखने के लिए आयुधशाला पहुंचे। जैसे ही सेनापति का अश्व आयुधशाला के मुख्य द्वार से भीतर प्रविष्ट हुआ, सभी कामगारों ने उनका खड़े होकर अभिवादन किया किंतु सेनापति ने उन्हें हाथ से अपने-अपने काम में लगे रहने का संकेत किया। आयुधशाला एक ऊंची और चौड़ी दीवार से घिरा हुआ एक विशाल प्रांगण था जिसका अधिकांश मैदान खुला था तथा कुछ भाग छप्पर से ढंका हुआ था। उपसेनापति कुशाग्र भी उस समय वहीं थे और तैयारियों की समीक्षा कर रहे थे। वे मैदान के दूसरे हिस्से में थे। उन्हें जब सेनापति के आगमन की सूचना प्राप्त हुई , वे तुरंत वहां पहुंचे और सेनापति को अभिवादन किया । “मेरा निर्देशपत्र तुम्हें समय से प्राप्त हो गया था, न?", सेनापति ने प्रश्न किया। “जी” उसी के अनुसार तैयारियों को मूर्तरुप दिया जा रहा है । “कितने पुल बना लिए गए हैं?” , सेनापति ने पुनः प्रश्न किया । “जी बहुत बना लिए गए हैं, कुछ बाकी हैं । आइए मैं आपको दिखाता हूं” , सेनापति रुद्रदेव कुशाग्र के पीछे चल पड़े। आयुधशाला के पिछले हिस्से में बहुत बड़े-बड़े लकड़ी के पुल तैयार किए जा रहे थे , जिन्हें सैकड़ों बढ़ई मिलकर दिन-रात तैयार कर रहे थे। पुल अजीब तरह से बनाए गए थे, उनकी चौड़ाई लगभग 20 फीट* थी और कुल लंबाई लगभग 150 फीट । जिसमें से लगभग 75 फीट भूमि पर क्षैतिज (Horizontal) था, जिनमें आगे धकेलने के लिए पहिए लगे हुए थे और शेष 75 फीट भाग क्षैतिज वाले भाग के आखरी कोने से जुड़ा हुआ था परंतु वह सीधा उर्ध्व (Vertical) हवा में खड़ा हुआ था जिसे बांसों के सहारे क्षैतिज वाले हिस्से पर टिकाकर रखा गया था । “हम्म, बढ़िया! पुल तो ठीक वैसा ही बनाया गया है जैसा मैंने निर्देशित किया था किंतु मुझे इनकी संख्या कम प्रतीत हो रही है। हमें और बहुत सारे पुलों की आवश्यकता है ” , सेनापति ने कठोरता का पुट लाकर कहा। “प्रभु दिन-रात लकडी कटाई और पुल निर्माण का कार्य जारी है । शीघ्र ही हम ढेर सारे ऐसे पुल बना लेंगे” “यह क्या है? इसे बनवाने का निर्देश किसने दिया” , अचानक रुद्रदेव की दृष्टि उन विशालकाय पत्थर फेंकने वाली गुलेलों के ऊपर पड़ी। “वो मैंने विचार किया कि शत्रु को जीत तो हम लेंगे किंतु उसके किले को भेदने के लिए इन विशालकाय पत्थर फेंकने वाली गुलेलों की आवश्यकता होगी।संभवतया आप निर्देश देना भूल गए होंगे इसलिए मैंने ही इन्हें बनवाने का निर्देश किया था” , कुशाग्र ने विनय की। “तुम केवल तभी निर्देश दिया करो जब हमारे निर्देश अनुपलब्ध हों। युद्ध में किसी भी बात को भूलने की कोई गुंजाइश नहीं होती । तुमने सोच कैसे लिया कि हम कोई बात भूल गए होंगे” , रूद्रदेव ने चिल्लाकर कहा। सभी कामगार उनकी ओर देखने लगे उपसेनापति कुशाग्र ने गर्दन नीचे कर ली। उसे उम्मीद थी कि इस कार्य के लिए उसे सराहना मिलेगी लेकिन हुआ विपरीत। “किले की दीवारों को भेदने के लिए हमारे पास एक दूसरी योजना है। तुमने ये गुलेलें बनवाकर अनावश्यक ही लकड़ी, मजदूरी और समय का दुरुपयोग किया है। यह समय हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है , हम इसका इस प्रकार दुरुपयोग नहीं कर सकते। एक राज्य का उपसेनापति होने के नाते तुम्हें इस बात को समझना चाहिए।” , रुद्रदेव ने अपनी आवाज को संयत करते हुए कुशाग्र को समझाया। किंतु उप सेनापति कुशाग्र स्वयं को बहुत अपमानित अनुभव कर रहा था। इन मजदूरों के सामने सेना के इतने बड़े अधिकारी की हेठी हो गई थी। वो मन ही मन बुदबुदा रहा था , “कहीं ऐसा ना हो कि यह आपका अंतिम युद्ध हो और अगले युद्ध की कमान मुझे ही संभालनी पड़े।” इतने में आयुध अध्यक्ष को भी सेनापति के आने की सूचना मिली और वह दौड़ता हुआ वहां पहुंचा। उसने दोनों अधिकारियों को हाथ जोड़कर अभिवादन किया। “जिन विशेष ढालों के बारे में मैंने निर्देशित किया था उनकी क्या स्थिति है।”, सेनापति आयुधाध्यक्ष की ओर आकृष्ट हुए । “जी बहुत तेजी से कार्य चल रहा है, हजारों ढाले हम बना चुके हैं और भी बन रही हैं। चलिए मैं आपको दिखाता हूं।” सभी वहां पहुंचे जो आयु्धशाला का ढंका हुआ हिस्सा था। अनेक लोहार वहां पर ढालें व अन्य अस्त्र-शस्त्र बना रहे थे। अनेक भट्टियां वहां जल रही थीं इसलिए वहां गर्मी अधिक थी। आयुधाध्यक्ष ने वह विशेष ढाल सेनापति को दिखाई । वह एक आदम कद ढाल थी और उसकी चौड़ाई इतनी थी कि उसके पीछे दो आदमी आसानी से छुप सकते थे। उसके लंबे वाले दोनों किनारों पर मध्य में एक-एक हत्था था। आमतौर पर छोटी ढाल के मध्य में केवल एक ही हत्था होता था । “किंतु प्रभु , ये ढालें किस प्रकार उपयोग की जा सकती हैं , क्योंकि ये आवश्यकता से अधिक बड़ी हैं” आयुधाध्यक्ष ने पूछा। “समय आने पर सबकुछ समझा दिया जाएगा। पहले इनका निर्माण हो जाने दीजिए और हाँ साथ ही साधारण ढालें भी अधिक मात्रा में आवश्यक होंगी” , चलते-चलते दिशानिर्देश देकर सेनापति रुद्रदेव वहां से निकल गए। Previous< >Next --------------- * दूरी, लंबाई , समय आदि के मापदंडों को वर्तमान मापदंडों के अनुरूप यथा फ़ीट, किलोमीटर , घंटे आदि में ही रखा गया है जिससे कथा को समझने समझाने में बाधा न हो। आगामी भाग में पढ़ें- युद्ध की और कौनसी तैयारियां की गई हैं। जानने के लिये पढ़ते रहें “महाप्रयाण” अपने सुझाव व विचारों से ऐसे ही हमें अवगत कराते रहें और पढ़ते रहें। आगामी भाग दिनांक 11.12.2016 को प्रकाशित किया जाएगा। अधिक अपडेट के लिए फॉर्म साइन अप करें। धन्यवाद
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