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धीमान ने फिर अपना गोफण घुमाया , रुद्रदेव नीचे झुक गए , गोला उनके सिर को लगभग छूता हुआ निकट पत्थर से जा टकराया। पत्थर का चूर्ण बन गया , रुद्रदेव उस पत्थर के स्थान पर अपने मस्तक की कल्पना तक न कर सके। भयंकर शक्ति थी उस मनुष्य के भीतर। वे एक क्षण को ठिठके , किंतु वह मनुष्य था भी या नहीं क्योंकि रुद्रदेव ने गौर किया कि उसके गोफण की लोहे की सांखल उसके दाएं हाथ की कोहनी के नीचे के हाथ से आगे जुड़ी हुई है, आगे उसका हाथ है ही नहीं । उसके पास केवल बाँया ही हाथ है , जिससे वह गोले गोफण में रख रहा था और वह हाथ भी बहुत लंबा था। रुद्रदेव ने एक क्षण में सारी परिस्थिति भांप ली । वह एक युद्ध-यंत्र था, जिसे विशेषकर इस युद्ध के लिए तैयार किया गया था , रुद्रदेव को मारने के लिए। तभी तो वह रुद्रदेव का ध्वज देखकर सीधे उस ओर आ गया था । “उससे दूर लड़ना ठीक नहीं क्योंकि उसके हाथों व गोफण की पहुँच बहुत लंबी है इसलिए इसके निकट से ही वार करना होगा” रूद्रदेव अपनी तलवार संभालकर उसके चारों ओर घूमते हुए विचार कर रहे थे। वे चारों ओर घूमते हुए धीरे-धीरे उसके निकट हो गए। एक हाथ से दूसरे हाथ में तलवार लेते हुए तलवार हवा में लहरा रहे थे । उसकी दृष्टि निरंतर रुद्रदेव पर जमी हुई थी । उसकी पुतलियां रुद्रदेव के अनुसार ही इधर-उधर हिल रही थीं। रुद्रदेव की गतिविधिया निरंतर तेज और तेज होती जा रही थीं। वे उसके बहुत निकट पहुंचने का प्रयास कर रहे थे लेकिन इसके पहले ही उसके बाएं हाथ का एक भरपूर मुष्टिका प्रहार रुद्रदेव के सीने पर हुआ। रुद्रदेव तोप के गोले की तरह छूटते हुए दूर जा गिरे, लगा हृदयाघात हो गया। ह्रदय रूकते-रूकते बचा परंतु हृदय पर हुई धम्म की ध्वनि उनके पूरे शरीर ने सुनी, मुंह से कुछ रक्त भी बाहर आ गया। वे ह्रदय पर हाथ रखकर जैसे-तैसे एक घुटने पर उठने का प्रयास करने लगे कि पुनः गोफण से गोला छूटा, वे जैसे थे वैसे ही लेट गए , गोला सीधा निकल गया । माथे से पसीना बह रहा था और आंखों में क्रोध की अग्नि धधक उठी थी किंतु द्वंद युद्ध का एक ही नियम है कि शरीर को गर्म रखा जाय और मस्तिष्क को ठंडा । उन्होंने तुरंत स्वयं को संयत किया और गहरी श्वास लेकर मस्तिष्क तक अतिरिक्त प्राणवायु पहुंचाई । वे उठ खड़े हुए और पुनः एक-दूसरे पैर पर उछलते हुए उसके चारों ओर घूमने लगे। “ इसके गोफण को इसके शरीर से अलग कर इसे हल्का करना होगा।” उन्होंने तेजी से गोल घूमते हुए अचानक नीचे बैठ उसके दाएं हाथ पर भरपूर प्रहार किया। उसका हाथ हल्का सा कटा ना उसने चीत्कार किया ना उसके मुख से कोई शब्द निकला, उसे शायद दर्द भी नहीं होता था । रुद्रदेव अब बहुत तेजी से उसके चारों ओर गोल घूम रहे थे, वे कभी उसके पीछे होते, वह जब तक घूम कर उन्हें देखता वे कहीं और होते । उसे भ्रमित कर रुद्रदेव ने पुनः एक प्रचंड प्रहार उसी स्थान पर किया। सांखल के भार के कारण और इस प्रहार से उसका आधा हाथ कटकर लटक गया। आधे भाग का मांस खिंचकर फटता हुआ स्पष्ट दिखाई दे रहा था । इस बार संभवतया उसे कुछ कष्ट हुआ, उसने अपने हाथ को देखा। तब तक बहुत फूर्ति से रूद्रदेव ने उसके बहुत निकट पहुंचकर पुनः वहीं प्रहार कर दियाऔर वह हाथ कटकर भूमि पर गिर गया परंतु इस बार रुद्रदेव उसकी बाएं हाथ की पकड़ में आ गए । उसने अपना बायां हाथ रुद्रदेव की पीठ पर रख कर , उन्हें अपने सीने पर लगे कवच के साथ टकराकर दूर फेंक दिया । उसके कवच पर लगे छोटे-छोटे नुकीले भाले रुद्रदेव के कवच को फाड़ते हुए उनके सीने कंधे व पेट में घुस गए , सिर जाकर भूमि से टकरा गया। शरीर के हर कोने से रक्त बहने लगा, रूद्रदेव भूमि पर औंधे मुंह गिर गए । उनकी तलवार भी न जाने कहां फिंक गई , सिर से बहता रक्त पलकों के आगे टपकने लगा जिसमें से होकर सारी युद्धभूमि लाल दिख रही थी । धूल और रक्त के मिश्रण ने उस योद्धा का श्रृंगार कर दिया था । तीव्र रक्त स्त्राव से मूर्छा आने लगी थी । आंखें बंद हो रही थीं, मांसपेशिया शिथिल होने लगीं , हृदय की धड़कन बंद हो गई, प्राणों को निकलने के लिए शरीर के कपाट खुलने लगे , गिद्धों की ध्वनियां कानों तक आने लगीं किंतु मस्तिष्क शांत था , शांत था इसलिए रक्त प्रवाह तीव्र नहीं था , रक्त प्रवाह तीव्र नहीं था अतः रक्तस्त्राव भी अधिक नहीं था , अतः कार्यरत था । तब मस्तिष्क से एक चीख उठी , एक आज्ञा , “नहींssssss , अभी नहींssSsss। इस युद्ध के समाप्त होने से पहले तो बिल्कुल नहीं ” वह चीत्कार पूरे शरीर ने सुनी । ह्रदय ,पेट , आँतें , हाथ-पैर, हर मांसपेशी तक पहुंची। आज्ञापालन हुआ, शरीर के कपाट पुनः बंद होने लगे , ह्रदय स्पंदित होने लगा, मांसपेशियां कसने लगीं , आंखें खुल गयीं । नथुनों से निकलती हुई वायु से धूल उड़ी । दोनों हाथों की मुट्ठियां कसीं और कसकर भूमि पर टिक कर शरीर को उठाने लगी। धीमान के लिए किसी मनुष्य को मारने के लिए इतना प्रहार पर्याप्त था किंतु उसने जब रुद्रदेव को उठते देखा तो वह उनकी ओर दौड़ा , इस बार पैर से उनका सिर ही कुचलने की योजना थी। रुद्रदेव घुटनों पर थे , उसने अपना दांया पैर उठाया.............. किंतु तभी....... एक तलवार पीछे से उसकी दाएं पैर की जंघा के आर-पार हो गई । उसने पीछे पलटकर देखा तो उस तलवार की मूठ रुद्रदेव के सेवक चैतन्य के हाथ में थी , उस राक्षस के क्रोध की कोई सीमा न रही, उसके अंतिम प्रहार में बाधा आ गई । उसने अपने बाएं हाथ से चैतन्य का गला पकड़ कर ऊपर उठा लिया । इधर रुद्रदेव सावधान हो गए, उन्हें समय मिल गया। आसपास कोई अस्त्र-शस्त्र न दिखा। धीमान का हाथी मृत पड़ा था , उसके नुकीले दांत को दोनों हाथों से रूद्रदेव खींचने लगे। उधर धीमान ने चेतन्य का गला भींच दिया, उसकी आंखें बाहर आ गई, जीभ लटक गई । उसने चैतन्य की गर्दन को इतना जोरदार झटका दिया कि उसका मस्तक टूटकर धीमान के हाथ में रह गया और शरीर भूमि पर गिर गया। गर्दन से रक्त टपक रहा था , आसपास युद्धरत हर सैनिक की आत्मा काँप गई । वो पलटकर रुद्रदेव की ओर बढ़ा । रुद्रदेव ने सारी शक्ति लगा कर दाँत हिला दिया, उसकी मज्जा में ढीला हुआ किंतु बाहर ना निकला । धीमान निकट आ रहा था, रुद्रदेव ने अब की बार सारी मांसपेशियों की शक्ति को हाथों में एकत्रित किया , सारी शिराएं फूलकर बाहर फट पड़ने को आतुर थीं , रक्त का प्रवाह बढ़ा तो शरीर के घावों पर लगी मिट्टी को हटाकर रक्त पुनः भल-भल शरीर से निकलने लगा। धीमान ने निकट आकर उसी प्रकार रूद्रदेव की भी गर्दन पकड़ ली और उसे भींचने लगा । हाथी दांत पर से पकड़ ढीली पड़ गई , लेकिन फिर शरीर फड़फड़ाया , पकड़ मजबूत हुई , दांत की जड़ से रक्त के फव्वारे छूट गए, दांत उखड़कर बाहर आया और पलक झपकने से पहले रुद्रदेव ने उसे धीमान के सीने में गाड़ दिया। धीमान ने उस गड़े हुए दांत को देखा , गर्दन की पकड़ ढीली हो गई , दो-तीन कदम पीछे हटा , लड़खड़ाया और धम्म करके भूमि पर गिर गया ...............अंत । रुद्रदेव ने चैतन्य के क्षत-विक्षत मस्तक को देखा, देखा ही न गया । रक्त , स्वेद और अश्रु की त्रिधार से मुख की मिट्टी धुलने लगी । धीमान के मरने से उन्होंने चैन की एक सांस छोड़ी और सीधे खड़े हुए । बहुत देर बाद उनका ध्यान शेष युद्ध की ओर गया। “ हे शम्भू, ये क्या" षटकुल की गजसेना ने विराटनगर की प्रथम व द्वितीय पंक्ति को समाप्त कर दिया था और इस प्रयास में षटकुल की गज सेना का भी अंत हो चुका था। यत्र-तत्र शवों के अंबार लग गए थे । विराटनगर की अब केवल तृतीय पंक्ति ही शेष थी और वह भी व्यूह स्वरुप में ना होकर अस्त-व्यस्त हो रही थी। उन्होंने अपनी विदारक हाथी के पैर से खींची और अश्व पर चढ़कर तृतीय पंक्ति की ओर अश्व दौड़ा दिया। आसपास के सैनिकों को काटते हुए वे तृतीय पंक्ति के निकट पहुंचे और पूरी प्राण शक्ति से अपना शंख फूंक दिया। जोर से चिल्लाकर तृतीय पंक्ति को व्यूहस्वरुप में आने की आज्ञा की । सेना में कुछ उत्साह का संचार हुआ, तभी सामने षटकुल की ओर से धूल का बादल उठता हुआ दिखाई देने लगा । “अब यह क्या है ?” षटकुल की नई अश्व सेना चली आ रही थी। तृतीय पंक्ति के हाथ-पैर फूल गए । वाम और दक्षिण सेनाप्रमुख अपनी-अपनी वाहिनी छोड़कर दौड़ते हुए रुद्रदेव के पास पहुँच गए। “अब क्या होगा ,सेनापति ?” रुद्रदेव के पास कोई उत्तर न था विराटनगर की पूरी सेना और सभी अधिकारी स्तब्ध से खड़े उस अश्व सेना को अपनी ओर बढ़ते हुए देख रहे थे । पराजय का हल्का सा भय रुद्रदेव के मन में उठा, उन्होंने आंखें बंद कर लीं और कुछ क्षण पश्चात आंखें खुलीं तो अश्व सेना को और स्पष्ट देखा जा सकता था । रुद्रदेव ने आकाश की ओर देखा सूर्यदेव अस्ताचल की ओर थे । वे मन में बुदबुदाये, “ हे महादेव!” अचानक अश्व सेना की अंतिम पंक्ति के सवार चलते-चलते नीचे गिर पड़े, फिर उसके आगे वाली पंक्ति के सवार भी टपाटप नीचे गिरने लगे । यह क्या हुआ ........... अश्व सेना के पीछे से बाणों की वर्षा हो रही थी और वे कुछ समझ पाते उससे पहले ही वे समाप्ति की कगार पर आ गए। पीछे से कुशाग्र के नेतृत्व वाली विराट नगर की पच्चीस हजार की विशाल सेना का आक्रमण हो गया था। Previous< >Next ------------ आगामी भाग में पढ़ें- क्या हो गयी विजय? जानने के लिये पढ़ते रहें “महाप्रयाण” संभव नहीं की आपको पसंद न आये । अतः अपने विचारों से अवगत अवश्य कराये। आगामी भाग दिनांक 12.02.2017 को प्रकाशित किया जाएगा। ई मेल द्वारा नोटिफिकेशन प्राप्त करने के लिए फॉर्म अवश्य साइन अप करें। धन्यवाद
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