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महाप्रयाण भाग-24 "कर्मफल"

19/2/2017

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वह विशाल निर्जन मरुस्थल जहां सांय-सांय हवा बह रही थी । रेत एक स्थान से उड़कर दूसरे स्थान को सरसराती हुई चली जा रही थी । मरे हुए पशुओं के कंकाल यत्र-तत्र पड़े हुए थे ।
उस तपते हुए मरुस्थल में रुद्रदेव , आगे बढ़ते जा रहे थे। सामने दीखते उस अगम्य, गगनचुंबी पर्वत की ओर , धीरे-धीरे किंतु बहुत परिश्रम से ....... उसकी कंटीली झाड़ियों में उलझते-निकलते , उस पर्वत के शीर्ष की ओर चढ़ रहे थे।

यत्र-तत्र कांटो के लगने से रक्त भी निकल रहा था और मस्तक से पसीना भी किंतु इस सभी से अविचल उन्हें तो पर्वत के शीर्ष पर जाना था क्योंकि इस पर्वत के उस पार अनंत विजय थी , स्वप्नों का नगर था , स्वर्गीय आनंद था। कोई बात उन्हें ना बांध सकती थी , कोई विपदा उन्हें ना रोक सकती थी । वे कई बार गिरे, फिसले , परंतु दृष्टि वहीं पर थी ......शीर्ष पर ।

आखिरकार निरंतर परिश्रम का फल मिला । वे उस अगम्य पर्वत की चोटी पर थे , जहां सारे जीवन के त्याग और परिश्रम का परिणाम था । कानों में जय-जयकार गूंज रही थी । आनंद की शीतल बयार बह रही थी । उनकी आंखे बंद थीं , केश हवा में लहरा रहे थे । उन्होंने उस शीतलता को शरीर में समेटने के लिए गहरा श्वास भरा , मन के प्रत्येक कोने तक आनंद का अनुभव हुआ और फिर श्वास छोड़ा , आंखें खोलीं परंतु यह क्या सामने तो कुछ दिखाई नहीं देता है ......गहरा धुंधलका है । संभवतया इस धुंध के आगे ही है वह स्वर्ग का साम्राज्य जिसे वह ढूंढ रहे थे । उन्होंने विभ्रम में एक कदम आगे बढ़ाया लेकिन वहां कुछ ना था, भूमि पर पैर न पड़ा और वह नीचे-नीचे, बहुत नीचे गिरते ही चले गए। एक चीत्कार अनायास ही उनके मुख से निकल गई, उनकी आंखे खुल गईं ।


वे पसीने-पसीने होकर अपनी शय्या पर उठ बैठे । सारे सेवक-सेविकाएं उनकी चीत्कार सुनकर भागते हुए उनके कक्ष में आए ,“ क्या हुआ स्वामी ? कोई स्वप्न देखा क्या ?”

“ हां ! एक भयंकर स्वप्न । जाओ, तुम लोग जाओ , मैं ठीक हूं । ”

उसके पश्चात उन्हें रात भर निद्रा ना आयी।

प्रातः होते ही वे अपना अश्व लेकर नगर में निकल गए। नगर की प्राचीर के सहारे गुजरते हुए उन्हें वह बस्ती दिखाई दी जो उन्हें निरंतर खटकती थी और साथ ही दिखाई दिए निकट खड़े दो सैनिक जो आपस में ठिठोली कर रहे थे।

“ किस वाहिनी से हो तुम दोनों ? ”
सेनापति की आवाज सुनते ही उनके होश उड़ गए,
“जी दक्षिण ” एक सावधान की मुद्रा में कंठ से थूक निगलते हुए बोला ।

“क्या कर्तव्य इस प्रकार किया जाता है ?” सेनापति ने कंपाने वाली कड़क आवाज़ में कहा।

“क्षमा करें महाराज , भूल हो गई । अब कभी ना होगी।”

“वह सब ठीक है , अब बताओ कि ये जो लोग नगर की प्राचीर के पास झोंपड़ियां बना कर रह रहे हैं, इन्हें हटाने के लिए हमने आज्ञा की थी । अभी तक पालन क्यों न हुआ उसका ?” सेनापति नगर की प्राचीर के पास बनी झोपड़ियों और खेलते हुए बच्चों की ओर देख कर बोले ।

“जी हमने उनसे कहा था किंतु इनके पास नगर प्रमुख का अनुमति पत्र है , इसलिए हम इनसे कुछ ना कह पाए ।”

“नगर प्रमुख कौन होते हैं राज्य की सुरक्षा से समझौता करने वाले ? नगर सुरक्षा तो हमारा विषय है ।” सेनापति क्रोध में तमतमा उठे।

“हम अभी महाराज से बात करते हैं । ” कहकर उन्होंने अपना अश्व राज्यसभा की ओर दौड़ा दिया और जाते जाते कह गये , “अगली बार इस प्रकार लापरवाही ना हो अन्यथा सेवामुक्त कर दिए जाओगे ” दोनों सैनिकों के शरीर में झुरझुरी दौड़ गई।

सेनापति सीधे राजसभा में पहुंचे।


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आगामी भाग में पढ़ें- इस स्वप्न का अर्थ क्या है? क्या होगा राजसभा में ?
जानने के लिये पढ़ते रहें “महाप्रयाण”

अपने विचारों से अवगत अवश्य कराये।
आगामी भाग दिनांक 26.02.2017 को प्रकाशित किया जाएगा।
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