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सेनापति राजसभा में पहुंचे । कुछ समय पश्चात महाराज का सभा में आगमन हुआ । सभी ने खड़े होकर महाराज का अभिवादन किया । कुछ देर बाद राजसभा की कार्यवाही चलती रही, तत्पश्चात सेनापति रुद्रदेव ने अपने स्थान पर खड़े होकर कहा, “ महाराज नगर की सुरक्षा एक सेनापति के लिए सर्वोपरि कार्य है और उस सुरक्षा के साथ ही खिलवाड़ किया जा रहा है । नगर की प्राचीर के नीचे ही नगरप्रमुख ने कुछ लोगों को रहने की अनुमति दे रखी है।” महाराज की आज्ञा के बिना ही नगरप्रमुख बीच में ही तुनककर बोला , “मुझे कोई आनंद नहीं आता ऐसी अनुमति देने में, किंतु महाराज षटकुल की विजय के बाद से नगर में नए लोगों का आवागमन बढ़ गया है और नगर की जनसंख्या भी निरंतर बढ़ती जा रही है तो अधिक लोगों को बसाने के लिए प्राचीर के भीतर और स्थान कहां से लाया जाए ।” “तो कोई और व्यवस्था कीजिऐ , यह आपका काम है किंतु मैं सुरक्षा से कोई समझौता नहीं करने दूंगा।” सेनापति भी कुछ तैश में आ गए । “सुरक्षा सुरक्षा सुरक्षा , आप हमेशा एक ही बात क्यों करते हैं ।” नगरप्रमुख अब सीधे सेनापति के सम्मुख होता हुआ बोला , “सुरक्षा के अतिरिक्त और भी सौ व्यवस्थाएं होती हैं। केवल आपकी तरह युद्ध जीत लेना और अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेने भर से राज्य की व्यवस्था नहीं चलती है ।” सेनापति ने क्रोध में अपनी मुठ्ठियाँ भींच लीं किंतु वह बोलता रहा , “और अब चारों ओर शांति और मैत्री है । कौन सा राज्य हम पर आक्रमण करने वाला है ? आप अनावश्यक ही परेशान रहते हैं और दूसरों को भी करते हैं।” “ बाल्यकाल में पिया माता का दूध, युवावस्था में रक्त बनकर दौड़ता है और यौवन का व्यभिचार वृद्धावस्था में रोग बनता है । ” रुद्रदेव ने कहा फिर आगे कुछ बोलने को हुए उससे पहले महाराज ने बीच बचाव करते हुए कहा, “आप लोग विवाद करने से अच्छा कोई सुझाव बताइए , जिस पर अमल किया जा सके । ” नगर प्रमुख फिर उचककर बीच में बोला, “मेरा विचार है कि नगर के बाहर जो सुदर्शन वन है उसके वृक्ष कटवाकर तथा उसके चारों ओर परकोटा बनवाकर, वहां रहने की व्यवस्था की जा सकती है , वहां निकट ही जल की भी प्रचुर उपलब्धता है ।” यह सुनकर तो सेनापति आपे से बाहर हो गए और नगरप्रमुख की ओर उंगली उठाकर कर्कश स्वर में बोले , “यदि सुदर्शन वन का विचार भी किया ना तो कल से सेनापति का यह पद आप ही संभालना और समरांगण में रक्त देने भी आप ही जाना ।” नगर प्रमुख थोड़ा सिहर गया सेनापति महाराज की ओर घूमे, “और महाराज यदि आपको सुदर्शन बन समाप्त करना ही हो , तो पहले मुझे बुलवाकर मेरा त्याग पत्र स्वीकार कीजिएगा” कहकर सेनापति क्रोध में राजसभा का फर्श रौंदते हुए बाहर की ओर निकल गए। संध्या के समय रुद्रदेव अपने राजमहल की खिड़की में खड़े वितस्ता को निहार रहे थे, उसकी लहरों की ध्वनि यहां तक आ रही थी। सूर्य उसकी लहरों में डूबता जा रहा था और रुद्रदेव का मन भी । बीते पांच वर्षों में सारी सुख-सुविधाएं , राजमहल, सेवक-सेविकाएं उन्हें महाराज ने दी थी परंतु उनके बीच रुद्रदेव उसी प्रकार रहे थे जिस प्रकार जल में कमल रहता है ......निर्लिप्त , अनासक्त । वे इन पांच वर्षों में कहां बदले थे , यह आराम उनके तन को कहां भाता है , उनका मन तो तलवारों और कटार के घावों में ही सुख पाता है और मन ........वह तो बार बार इस राजमहल से निकलकर समरांगण की ओर ही भागता है । लेकिन अब युद्ध कहां ? चारों ओर तो मैत्री है , नगरप्रमुख ठीक ही तो कहता है , अब किस से युद्ध होगा , क्यों होगा ? उनका मन और डूब रहा था , अगर उनमें कुछ बदला था तो बस इतना कि उनके चेहरे पर अब दाढ़ी उग आई थी , कुछ काली - कुछ श्वेत , इसके अतिरिक्त तो सब कुछ वही था । सूर्य पूरी तरह वितस्ता में समा गया था, उन्होंने एक गहरा श्वास छोड़ा और खिड़की बंद कर दी। Previous< >Next ------------ आगामी भाग में पढ़ें- परिस्थितियां बदल रही थीं , राज्य बदल चुका था। क्या इस बदले समय में रुद्रदेव अपने आप को स्थिर रख पाएंगे या कुछ ऐसा कर देंगे जो विराटनगर के आने वाले भविष्य जो निर्धारित कर देगा। जानने के लिये पढ़ते रहें “महाप्रयाण” अपने विचारों से अवगत अवश्य कराये। आगामी भाग दिनांक 05.02.2017 को प्रकाशित किया जाएगा। नोटिफिकेशन प्राप्त करने के लिए फॉर्म अवश्य साइन अप करें। धन्यवाद
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