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महाप्रयाण भाग-27 "आसक्ति"

19/3/2017

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               उस युवक से मिलकर ना जाने क्यों मन का भार कुछ हल्का अनुभव हो रहा था। उसके बलिष्ठ शरीर में उन्हें अपना शरीर दिखाई दिया था और उसकी आंखों में अपने स्वप्न । अगले दिन प्रातः उठकर वे पुनः उसी रूप सज्जा के साथ अंधेरे में ही उस स्थान के लिए निकल गए।

तालाब के किनारे प्रसेन अपनी उसी अनगढ़ तलवार के साथ अकेला ही द्वन्द युद्ध के पैतरों का अभ्यास कर रहा था, रुद्रदेव के आने की उसे भनक न लगी । रुद्रदेव उसके पीछे पेड़ों के झुरमुट में खड़े होकर उसे अभ्यास करते देख रहे थे । कुछ देर बाद उनसे रहा न गया और उन्होंने उसके पास जाकर उसकी कलाई थामकर उसे सीधा किया , प्रसेन अपने एकदम निकट से उन्हें देखकर प्रसन्न हो गया। फिर उन्होंने नीचे झुककर प्रसेन के पैरों की चौड़ाई को कुछ कम किया, “पैरों के मध्य स्थान इतना हो कि दोनों पैरों पर समान दबाव रहे , इस से कभी गिरोगे नहीं और वार में पर्याप्त बल भी रहेगा। अब चलाओ....”

वे पीछे हट गए प्रसेन को सचमुच अंतर अनुभव हुआ,
“ हां आप सही कहते हैं ।”

अब रुद्रदेव ने भी अपनी तलवार निकाल ली और प्रसेन के सम्मुख आकर अपने पैरों को चौड़ा कर , तलवार अपने सामने सीधी खड़ी की फिर धीरे से तलवार घुमाकर तिरछी करते हुए सामने ले गए । ठीक वैसा ही प्रसे्न ने भी किया और दोनों तलवारें धीमे से एक दूसरे से टकराई ।”

“हां बढ़िया! ठीक ऐसे ही” रुद्रदेव ने खुश हो कर कहा।

दिनभर अलग-अलग अस्त्रों से अभ्यास चलता रहा । शाम को दोनों थक कर एक पत्थर पर बैठ गए , “ क्या आप मुझे शस्त्र विद्या सिखाएंगे? मेरा कोई गुरु नहीं है , मैं आपको अपना गुरु बनाना चाहता हूं ।” प्रसेन , रुद्रदेव की शस्त्र विद्या देखकर चमत्कृत था।

“ सिखा तो दूं परंतु इतना समय नहीं है । मुझ पर बहुत भार है रुद्रदेव ने माथे पर सिलवटें लाते हुए कहा ।”

“ कल तो आप कह रहे थे कि आप अवकाश पर हैं। अच्छा! आपको नहीं सिखाना तो बहाना बनाने की आवश्यकता नहीं है । "

“ ऐसी बात नहीं है ! " रुद्रदेव ने हंसते हुए कहा , “तुम तो बहुत प्रखर बालक हो किंतु..........”

“ आप मुझे शिक्षा दीजिए और आपका सारा भार मैं वहन कर लूंगा ” उसकी शस्त्र विद्या के प्रति ललक और उसके मन की निश्चलता देखकर रुद्रदेव मना न कर सके ।

अब तो रोज का वही क्रम हो गया था । रुद्रदेव सुबह सवेरे ही विराटनगर से वहां आ जाते थे और दिन भर प्रसेन के साथ बिता कर संध्या को पुनः विराटनगर लौट आते थे। प्रसेन भी दिन प्रतिदिन दक्षता प्राप्त करता जा रहा था।

समय भी निरंतर चलता जा रहा था ।

इसी क्रम में लगभग 6 माह बीत गए ।

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“ महाराज की जय हो " सेनापति कुशाग्र ने महाराज को प्रणाम किया । उसके साथ एक दूत भी था ।

“ महाराज यह हमारा दूत है जो षटकुल से आया है । इसे हमारे षटकुल के सामंत ने भिजवाया है ।”

“ क्या बात है ?”

“ इनका कहना है कि षटकुल की पश्चिमी सीमा अर्थात हमारे विराटनगर के षटकुल क्षेत्र के सुदूर पश्चिम छोर* पर सत्ता के विरुद्ध कुछ विद्रोह हो रहा है , जिसे ये लोग दबाने में असफल रहे हैं।”

“ अच्छा यदि ऐसा है तो शीघ्र सेना भिजवानी होगी। द्वारपाल ! जाओ शीघ्र सेनापति रुद्रदेव को सूचित करो कि हमने स्मरण किया है ।”

“ लेकिन सेनापति यहां नहीं है , कुशाग्र ने द्वारपाल को जाने से पहले ही रोक दिया । वे आजकल यहां रहते ही कहां हैं, सुबह सवेरे ही कहीं निकल जाते हैं और संध्या को अंधकार के पश्चात ही वापस आते हैं , राज्य की सुरक्षा की ओर ध्यान कम ही है उनका आजकल । ” कुशाग्र ने कुछ बढ़ाकर कहने का प्रयास किया।

“ अच्छा यदि सेनापति यहां नहीं है तो कुशाग्र तुम सेना की उचित टुकड़ी लेकर जाओ और उपद्रव को कुचल दो ।”

“ जैसी आज्ञा महाराज और हां अपने गुप्तचरों को भी सूचित करो कि पता लगाए कि यह उपद्रव आखिर किसके कहने पर हो रहे हैं और उनका नेता कौन हैं ? ”

“ जी ”

कुशाग्र , महाराज को सादर प्रणाम कर निकल गया ।


उधर एक दिन रुद्रदेव और प्रसेन , दोनों पत्थर पर बैठकर वार्तालाप कर रहे थे । रुद्रदेव अपने हाथ में कटार लेकर पत्थर पर कुछ चित्र खींच रहे थे ।

“ यदि तुम्हें किसी राज्य पर आक्रमण करना हो तो तुम्हारी क्या योजना होगी? ” रुद्रदेव ने प्रश्न किया ।

“ योजना क्या , सीधा अपनी सेना के साथ उन पर आक्रमण कर दूंगा ।”

“ तब तो वे तुम्हें अवश्य ही हरा देंगे क्योंकि उन्हें तुम्हारी हर गतिविधि ज्ञात होगी । युद्ध में सदैव वे ही सफल होते हैं जो शत्रु को दो ओर से घेर लेते हैं और उसे संभलने का मौका नहीं देते ।”

“ किंतु किसी को पीछे से घेरकर मारना तो नीति नहीं है।”

“ युद्ध में नीति नहीं विजय महत्वपूर्ण होती है ।” रुद्रदेव ने विश्वास से कहा ।

“ तो नहीं चाहिए ऐसी विजय , जो किसी की पीठ में छुरा घोपने से मिली हो।” उसने रुद्रदेव की आंखों में आंखें डाल कर कहा , “ और भी मार्ग हो सकते हैं और भी योजनाएं हो सकती हैं किंतु पीछे से वार करना यह मेरा तरीका नहीं है।”


वह रुद्रदेव के चरणो में बैठ गया और पैर छूते हुए बोला , “ मुझे आशीर्वाद दीजिए गुरुदेव कि मुझे कभी ऐसी अनुचित नीति का उपयोग न करना पड़े चाहे विजय मिले अथवा न मिले ।”

रुद्रदेव ने उसे उठाकर सीने से लगा लिया, उनकी आंखें नम हो गई , “ शाबाश पुत्र , यदि आज मेरा कोई पुत्र होता तो मुझे उससे भी ऐसी ही उम्मीद होती । तुमने आज सचमुच मेरा मान बढ़ाया है, शतायु भव! ”

*सीमाओं का वितरण देखने के लिए भाग - २ “सीमांकन” देखें।

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आगामी भाग में पढ़ें- एक पराये बालक में पुत्रवत आसक्ति , क्या इससे कोई लाभ होगा अथवा कष्ट ही भोगना होगा ।
जानने के लिये पढ़ते रहें “महाप्रयाण”

अपने विचारों से अवगत अवश्य कराये।
आगामी भाग दिनांक 26.03.2017 को प्रकाशित किया जाएगा।
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धन्यवाद



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