Previous< >Next
“आज आप मेरे घर चलिए , मेरे साथ, मुझे आपको अपनी मां से मिलवाना है ” प्रसेन ने बच्चों जैसी हठ की। “ क्यों ,कुछ विशेष है वहां ? ” “ हाँ! आप शायद भूल गए किन्तु मुझे याद है , आज आपको मुझसे मिले हुए पूरा एक वर्ष हो गया है । जिस दिन आप मुझे मिले थे उस दिन भी मेरा जन्मदिन था और आज भी है, तो चलिए मेरे घर ” प्रसेन रुद्रदेव का हाथ पकड़कर खींचने लगा। “ हाँ हाँ , ठीक है , ठीक है ......तुम इतना कहते हो तो चलो, तुम आगे चलो हम अपना अश्व लेकर आते हैं ।" प्रसेन दौड़ता हुआ तेजी से आगे बस्ती की ओर चल दिया। रुद्रदेव ने भी अपना अश्व खोला और उस ओर चलने लगे जिस ओर प्रसेन गया था । “ माँssssss. मांssssss " प्रसेन अपनी झोपड़ी में पहुंचा। “ मेरे गुरुदेव हरितभूमि के शस्त्र शिक्षक ज्ञानेंद्र आए हैं, तुमसे मिलने ।” “ अच्छा अरे पहले क्यों नहीं बताया , कुछ विशेष पकवान बना लेती । कहां हैं?.......” कहती हुए वह झोपड़ी से बाहर निकली , “कहां हैं ? यहां तो कोई नहीं है । ” “आते ही होंगे, वे अपना अश्व लेकर आ रहे हैं।” रुद्रदेव अपने अश्व को लेकर उस छोटी सी पहाड़ी से नीचे उतर रहे थे जिसके आगे नीचे की ओर प्रसेन का घर था। उन्होंने झोपड़ी के बाहर खड़ी प्रशन की मां को दूर से ही देखा, “ हे शंभू " उनके होश उड़ गए । उन्होंने वहीं से अपना अश्व पलटाया और वापस विराटनगर की ओर निकल गए । घोड़ों की टापों की आवाज सुनकर प्रसेन और उसकी मां ने देखा तो उन्हें दूर से ही अश्व पलटकर जाता हुआ दिखाई दिया । “ अरे वे तो वापस जा रहे हैं । जरूर तूने उन्हें ठीक से न्योता नहीं दिया होगा । ” प्रसेन की मां उसे डपटती हुई वापस घर में चली गई। प्रसेन को कुछ समझ ना आया कि वे वापस क्यों चले गए। विराट नगर से वापसी के रास्ते में रुद्रदेव के मस्तिष्क में भयंकर द्वन्द चल रहा था। जैसे कोई सिर में हथौड़े बरसा रहा हो । अपराध बोध से उनका मन जला जा रहा था और आंखों से अश्रुधार रुकने का नाम नहीं ले रही थी । “ हे मेरे भोलेनाथ यह क्या अपराध करवा दिया तूने । वह महिला तो षटकुल के राजा शतादित्य की पत्नी थी , इसका तात्पर्य हुआ कि प्रसेन, जिसे मैंने अपने पुत्रवत मान लिया था , वह विराटनगर के शत्रु शतादित्य का पुत्र है । वही बालक जिसे 6 वर्ष पूर्व मेरे हाथों से मर जाना चाहिए था , परंतु महाराज के कहने से जिसे जीवनदान दिया था। आज उसे मैंने अपनी विद्या का दान कर दिया । यह क्या हो गया मुझसे , यह क्या हो गया ?” रुद्रदेव सीधे अपने महल में पहुंचे और पश्चाताप में सामने जलते हुए अलाव पर अपने दोनों हाथ रख दिए किंतु इस पीड़ा का अंश भी उनके चेहरे पर ना दिखा, कष्ट तो उस अपराध का था , जो अनजाने में हो गया था । जैसे ही उनके सेवक ने उन्हें इस स्थिति में देखा उसने तेजी से झपटकर उनके हाथों को दूर किया। “यह क्या कर रहे हैं स्वामी ? यह अपराध है । ” “ यह कोई अपराध नहीं है बाबा! अपराध तो वह है , जो हम से अनजाने में हो गया है।” “ कौन सा अपराध, कुछ बताइये तो सही।” “ कुछ नहीं ” इतना कहकर वे पश्चाताप और आत्मग्लानि की अग्नि में जलते हुए अपने कक्ष में चले गए और अंदर से दरवाजा बंद कर दिया।” Previous< >Next -------------------------------- आगामी भाग में पढ़ें- शत्रुपुत्र को विद्यादान , अब क्या मूल्य चुकाना होगा रुद्रदेव को इस अपराध का। जानने के लिये पढ़ते रहें “महाप्रयाण” अपने विचारों से अवगत अवश्य कराये। आगामी भाग दिनांक 02.04.2017 को प्रकाशित किया जाएगा। नोटिफिकेशन प्राप्त करने के लिए फॉर्म अवश्य साइन अप करें। धन्यवाद
0 Comments
|
AuthorA creation of Kalpesh Wagh & Aashish soni Categories
All
|