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सभा से घर की ओर लौटते समय रुद्रदेव के मन में प्रसन्नता समा नहीं रही थी। “महाराज का धन्यवाद था जो उन्होंने षटकुल पर आक्रमण का निर्णय लिया था। षटकुल को सबक सिखाना सचमुच बहुत आवश्यक था।” रुद्रदेव के अंग-प्रत्यंग में एक अदभुत उत्साह हिलोरे ले रहा था । युद्ध की बात से ही उनके हृदय में रोमांच होता था। युद्ध उनके लिए भय का नहीं वरन आनंद का विषय था , रणभूमि उनके लिए शक्ति और कौशल के प्रदर्शन का रंगमंच थी। अभी वर्तमान में उनके पास षटकुल को हराने की कोई योजना तो नहीं थी किंतु उन्हें विश्वास था कि कोई न कोई कारगर योजना वे बना ही लेंगे और षटकुल की सीमाओं को विराटनगर की सीमाओं में मिला ही लेंगे क्योंकि युद्ध ही उनके जीवन का पहला और अंतिम लक्ष्य था। मन में विचार करते करते रुद्रदेव अपने निवास पर पहुंचे और सीधे अपने निजी कक्ष में गए, जहां उनके एक विश्वस्त सेवक के अतिरिक्त अन्य किसी को जाने की अनुमति नहीं थी। जब भी किसी युद्ध की योजना बनानी होती, वे उसी कक्ष में होते थे। कक्ष बहुत बड़ा था और कक्ष के बीचों-बीच कक्ष से कुछ ही छोटी एक विशाल मेज़ लगी हुई थी । इस मेज पर संपूर्ण विराटनगर की अनुकृति (मॉडल) बनी हुई थी। पहाड़ों के स्थान पर छोटे-छोटे पहाड़, पेड़ों के स्थान पर छोटे-छोटे पेड़ और नगरों में छोटे- छोटे मकान बने हुए थे। यहां तक कि उसमें वितस्ता नदी का प्रवाह और दक्षिण की ओर उसके पानी को रोककर बनाया गया विशालकाय बाँध भी दिखाई दे रहा था। यद्यपि रुद्रदेव सैकड़ों बार उस मानचित्र को देख चुके थे और वह अनुकृति यथावत उनके मस्तिष्क में छपी हुई थी किंतु फिर भी हर बार उसे देखने पर उन्हें नए विचार आते थे और इस बार उनकी दृष्टि पैनी होती हुई वितस्ता पर बने हुए उस बाँध पर जाकर टिक गई । उनका सारा दिन उसी कक्ष में बीत गया और रात होने को आ गई। उन्हें न भूख लगी, न प्यास और न ही निद्रा आई । अपने कर्त्तव्य के प्रति उनकी यह निष्ठा ही उन्हें सबसे श्रेष्ठ बना देती थी । उनकी रात भी उसी कक्ष में बीत गई । प्रातःकाल होने पर रुद्रदेव के निजी सेवक ने कक्ष के बाहर से आवाज लगाई किंतु भीतर कोई हलचल नहीं हुई, लगता था कि रुद्रदेव रात को विचार करते-करते उसी कक्ष में सो गए थे । सेवक आवाज लगाते हुए द्वार ठेलकर भीतर आया । भीतर कक्ष के दीपक जल रहे थे किंतु यह क्या कक्ष में तो कोई नहीं था । कदाचित नित्यकर्म से निवृत्त होने चले गए होंगे उसने अन्य कक्षों में भी देखा , नित्यकर्म से लौट आने की प्रतीक्षा भी की लेकिन कुछ नहीं । “आखिर गए कहां ” उसने मुख्य द्वार पर जाकर प्रहरियों से पूछा। प्रहरियों ने बताया कि वह तो कल रात्रि को ही अंतिम प्रहर में अपना अश्व लेकर कहीं निकल गए थे और उन्होंने यह बात तुम्हारे अतिरिक्त अन्य किसी को भी बताने से मना किया है। सेवक आश्चर्यचकित था । आने वाले लगभग पंद्रह दिनों तक सेनापति का कोई पता नहीं लग सका। महाराज ने भी उनकी कोई खोज खबर नहीं ली। “हो सकता है कि महाराज ने ही सेनापति को किसी गुप्त कार्य से भेजा हो” राजमहल से बस इतना ज्ञात हो सका कि सेनापति के दो विश्वस्त सैनिक उदय और चैतन्य का भी पता नहीं है और सेनापति उत्तर की ओर गए हैं। संभवतया वे दोनों भी सेनापति के साथ ही हैं Previous< >Next --------------------- आगामी भाग में पढ़ें- कहां चले गए रुद्रदेव, उन्हें तो योजना बनानी थी? क्या कोई योजना बन पाई ? ऐसा क्या है उत्तर में जो किसी को बिना बताए वे उस ओर चले गए अथवा गए भी या नहीं? सीमांकन देखना होगा। जानने के लिये पढ़ते रहें “महाप्रयाण” आप सभी सहृदय पाठक और हमारी इस कथा का साथ पूरे एक माह का हो चुका है , आप कथा से जुड़ रहे हैं इसकी हमें बड़ी प्रसन्नता है। हमारे कई उत्सुक पाठक आगे की कथा के बारे में भी चर्चा करते हैं और हमें प्रश्नों के ई मेल करते हैं जिनका हमने यथायोग्य उत्तर देने का प्रयत्न किया है। हम आपकी उत्कंठा का सम्मान करते हैं। कृपया ऐसे ही अपना साथ बनाये रखें, अपने सुझाव व विचारों से हमें अवगत कराते रहें और पढ़ते रहें। आगामी भाग दिनांक 04.12.2016 को प्रकाशित किया जाएगा। ई मेल द्वारा अपडेट प्राप्त करने के लिए कृपया साइन अप फॉर्म अवश्य भरें धन्यवाद
6 Comments
Rachana pareek
2/12/2016 09:30:35 am
बहुत शानदार......
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fictionhindi
5/12/2016 04:58:06 pm
धन्यवाद् रचना जी
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Preet kanal
5/12/2016 08:19:48 am
Going great !!!
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fictionhindi
5/12/2016 04:59:28 pm
धन्यवाद प्रीत जी
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Purva Wagh
14/12/2016 03:07:23 pm
aaj 7 - 10 bhag pade sabhi acche lage....
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fictionhindi
15/12/2016 05:27:46 pm
Thanks
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