पेट में चूहे उछल कूद मचा रहे थे। पंडित जी के पेट की व्याकुलता अब चेहरे तक आ चुकी थी। कोई भी उन्हें देखकर यह कह सकता था की भूख उनकी सहनशक्ति से बाहर हो चुकी है।धीरे धीरे संध्या भी हो रही थी और सूर्यास्त का मतलब था, आज उपवास ही होना है क्योकि सालो पहले ही वे सूर्यास्त बाद भोजन त्याग चुके थे ,जिससे अधीरता बढ़ती ही जा रही थी। गेलेरी में खड़े-खड़े उनकी दृष्टि नीचे मार्ग में टिकी हुई थी। जहाँ से उनका टिफिन आना था।
दरअसल पंडित जी रहते तो गांव में ही थे परतु उनके एक यजमान के नए फ्लैट में विशेष अनुष्ठान करना था जिससे की उस फ्लैट की शुद्धि की जा सके। इसके अतिरिक्त एक अन्य वृहद अनुष्ठान भी उन्ही यजमान के यहाँ करना था। इस हेतु उन्हें शहर जाकर उस फ्लैट में रहना पड़ा। अनुष्ठान पुरे 7 दिन चलने वाला था और उन्हें मज़बूरी में उसी फ्लैट पर रहना था। अब सुबह का भोजन तो अनुष्ठान में हो जाता था लेकिन मुख्य समस्या संध्या के भोजन की थी इसके लिए पूरी शुद्धता से यजमान के घर बनाया हुआ भोजन टिफिन के द्वारा उनके पास आता था। वैसे तो आसपास कई भोजनालय थे लेकिन पंडित जी को शुद्धता की बड़ी फिक्र थी और गलती से एक बार उन्होंने भोजनालय की रसोई की एक झलक पा ली थी और अंदर के दॄश्य ने उन्हें व्याकुल कर दिया था ,जिस तरह से गंदगी का वहाँ साम्राज्य था जगह जगह कॉकरोच और चूहे घूम रहे थे। यहाँ तक की रसोई तक अन्य पशुओ का स्वतंत्र आवागमन देखकर उन्होंने प्रण कर लिया था की आज के बाद बाहर का भोजन नहीं करना है। साथ ही भोजन पंडित जी की सबसे बड़ी कमज़ोरी भी थी। अगर तराजू के एक पलड़े में इंद्र का पद और एक में स्वादिष्ट भोजन होगा तो कदाचित भोजन का पलड़ा ही भारी होगा। परन्तु आज सेठजी के घर से आने वाला टिफिन बहुत इंतज़ार करवा चुका था । पंडित जी मन ही मन व्याकुलता से सोच रहे थे की यजमान को पता है कि मैं सूर्यास्त पश्यात भोजन नहीं करता फिर भी आज इतनी देर कैसेे हो गई। तभी तरवाजे की घंटी बजी, पंडित जी ने बिना एक क्षण गवांए दरवाजा खोला। दरवाजे पर सेठजी का ड्राइवर खड़ा था। उसने पंडित जी को टिफिन थमाया पंडित जी ने मन से गालिया और चेहरे से मुस्कराहट उसकी और फ़ेकी और दरवाजा बंद किया। पंडित जी ने आव देखा न ताव तत्काल आसान बिछाया ,पानी का लोटा भरा और टिफिन खोल लिया। जैसे ही टिफिन खुला उनका सारा क्रोध और व्याकुलता जाती रही और पूरा पेट प्रसन्नता से भर गया। टिफिन का पहला डिब्बा खीर से लबालब भरा था पंडित जी को परमानंद की प्राप्ति हो चुकी थी । दूसरे डिब्बे में गरमागर्म पूरियां थीं। तीसरे डिब्बे के बारे में पंडित जी ने मन ही मन यह अनुमान लगाया की इसमें झोलदार आलू की सब्जी होनी चाहिए, किन्तु ये क्या ! जैसे ही पंडित जी ने टिफिन खोला उसमे बैंगन की सब्जी रखी थी। "शिव शिव शिव शायद सेठानी जी को यह पता नहीं की मैं बैंगन नहीं खाता। " लेकिन पंडित जी को बैंगन का इतना दुःख नहीं था जितनी खीर की प्रसन्नता थी। उन्होंने बैंगन की सब्जी वाला डिब्बा अलग रख दिया और बिना रुके बिना थके खीर पूरी अंतिम कण तक खाई,फिर अपने विशालकाय पेट पर हाथ फेरते हुए लोटा भर पानी पिया। जो तृप्ति तीनो लोकों के राज्य से भी प्राप्त नहीं होती वो तृप्ति पंडित जी के चेहरे पर व्याप्त थी। अब उस टिफिन को धोकर रखना था, किन्तु उस बैंगन की सब्जी का क्या करे। यहाँ पांचवे माले पर तो कोई जीव जंतु भी नहीं था कि जो उसे खा ले। शहरों का जीवन भी बड़ा विचित्र है। अब एक बड़ी समस्या उनके सामने थी , सब्ज़ी को ठिकाने लगाने की । फिर उन्होंने विचार किया की सब्जी को पीछे गंदे गलियारे में फेक देना चाहिए जहाँ कोई जानवर उसे खा सके। उन्होंने पीछे की खिड़की खोली जिसकी आज तक उनको कोई आवश्यकता नहीं पड़ी थी और खिड़की से बाहर देखने का कष्ट उठाये बिना डिब्बा खिड़की के बाहर उल्टा कर दिया, लेकिन सब्जी नीचे नहीं गिरी, उन्होंने अपने हाथ को एक झटका दिया ,कुछ सब्जी गिरी कुछ बाकी रह गई, फिर एक बार झटका दिया लेकिन इस बार भी डिब्बा खाली नहीं हुआ लेकिन अब उनके हाथ तेल में हो गए । पंडित जी ने इस बार थोडा जोर से झटका दिया उनका ऐसा करना था और डिब्बा उनकी उंगलियो की पकड़ से छूटकर नीचे गिर गया। पंडित जी हतप्रभ से उस डिब्बे को नीचे गिरते हुए देखने के अलावा कुछ न कर सके । डिब्बा पाँच मंजिले पार करता हुआ कीचड़ वाली गली में जहाँ सभी बिल्डिंग का अपशिष्ट डाला जाता था वहां नाली में जा गिरा तब पंडित जी को वहां से गली में नीचे देखने का अवसर प्राप्त हुआ, नीचे गली का वातावरण नारकीय था, उन्हें दूर से स्टील के डिब्बे का चमकता हुआ भाग दिखाई दे रहा था। अब क्या किया जाये ,पंडित जी के मस्तिष्क में विचार आने प्रारम्भ हो गए , "क्या उसे लेने नीचे जाऊँ ? शिव शिव ! मैं एक ब्राह्मण होकर उस गंदगी में जाऊंगा ,शिव शिव। एक डिब्बे के होने या न होने से क्या फर्क पड़ता है, लेकिन ...लेकिन वो टिफिन तो सभी तीन डिब्बों के बिना बंद ही नहीं हो सकता। इसका मतलब है की पूरा टिफिन ही ख़राब हो जायेगा। नहीं नहीं डिब्बा तो लाना ही पड़ेगा ।परन्तु ऐसी गंदगी में कैसे जाया जायेगा धर्म भी तो इसकी आज्ञा नहीं देता। धर्म क्यों आज्ञा नहीं देता? क्या धर्म गंदगी साफ करने से मना करता है? गंदगी साफ करने के लिए तो गंदगी में उतरना ही पड़ता है। अगर मेरा पुत्र कीचड़ में गिर जाये तो क्या मैं उसे नहीं उठाऊंगा? लेकिन मेरा पुत्र कीचड़ में गिरेगा ही क्यों? हे भगवान क्या करूं! सेठजी क्या सोचेंगे , इतना महंगा टिफिन खराब कर दिया ! पर सेठजी क्यों ऐसा सोचेंगे? जिनके यहाँ रोज़ सैकडो ब्राह्मण भोजन कर रहे हैं वो एक तुच्छ से टिफिन के बारे में सोचेंगे | परन्तु महिलाओं का क्या भरोसा, वे तो एक चम्मच के लिए युद्ध छेड सकती हैं। अगर सेठानी जी ने सेठजी को कुछ उल्टा सीधा कह कर मेरे विरुद्ध कर दिया तो? उनका मेरे प्रति सम्मान समाप्त हो जायेगा और जजमानी जायेगी सो अलग ।क्या किया जाये?" वे अपनी चोटी पर हाथ फेर कर सोच रहे थे और उधर अँधेरा होने वाला था। पंडित जी का जीवन भर का ज्ञान आज कसौटी पर था, उनके मन में आज भारी अन्तर्द्वन्द चल रहा था सेठजी के मन में सम्मान कम होने के विचार ने उन्हें हिला दिया था और इसी विचार ने आख़िरकार उन्हें निर्णय करने में मदद की और अंततः उन्होंने पीछे गली में जाकर डिब्बा लेकर आने का निर्णय कर लिया । "लेकिन किसी ने अगर देख लिया तो ? उस पर भी एक छोटे से डिब्बे के लिए। अरे ये इतना बड़ा शहर है , कौन किसी का ध्यान रखता है।" पंडित जी ने अपना जनेऊ ,माला आदि उतारकर रखा धोती को कुछ और ऊपर चढ़ाया और चल दिए अपनी अग्नि परीक्षा को , जो असल में कीचड़ में होनी थी। नीचे पहुंच कर उन्होंने पीछे की गली का रास्ता खोजा और उधर चल पड़े । उन्होंने मुंह पर कपडा बाँधा और कीचड़ में अपना पैर रख दिया । आसपास पूरी तरह शूकरों का कब्ज़ा था , उनको हटाते फटकारते अपने मन को मारते वहाँ तक पहुंचे जहाँ डिब्बा पड़ा था उसे जल्दी से उठाया और उतनी ही शीघ्रता से पलट गए उन्हें डर था की कहीं कोई उनके ऊपर ही सब्जी न फेंक दे। वे शूकरों के बीच से उस तरह से डिब्बा लाये जैसे पाक से पाक अधिकृत कश्मीर ले आये हों । लगभग भागते हुए गली से बाहर आये और तेजी से अपने फ्लैट में आकर राहत की साँस ली। उन्होंने आज से कान पकड़ लिए की कभी सब्जी बाहर नहीं फेकूँगा। आकर उन्होंने स्वयं स्नान किया फिर डिब्बे पर ,स्वयं पर, कपड़ो पर ,सब सामानों पर गंगा जल छिड़का तब जाकर कही उन्हें चैन आया । "हे प्रभु आज तूने कैसी परीक्षा ली? आज के बाद कभी ऐसी परीक्षा में मत डालना ।" उन्होंने अपने कृत्य के लिए भगवन से क्षमा याचना की। रात में ड्राईवर आकर टिफिन ले गया । सब कुछ ठीक रहा , किसी ने कुछ नहीं देखा। लेकिन मन आज उचटा हुआ था। रात करवट बदलते बदलते ही निकली । अपने कृत्य को लेकर पंडित जी के मन में बहुत आत्मग्लानि थी लेकिन जो किया वो करना भी जरूरी था । अगले दिन प्रातः काल उठकर नित्य कर्म से निवृत्त होकर वे अनुष्ठान स्थल पर पहुचे। शरीर कुछ निढाल सा था लोगो ने पूछा भी कि क्या पंडित जी कुछ तबीयत ख़राब है? तो उन्होंने हँस कर टाल दिया। उनकी लाऊडस्पीकर सी आवाज़ आज कुछ दबी दबी सी थी , और मुस्कराहट भी कुछ फीकी सी । सारा दिन आत्मग्लानि में बीत गया। मन किसी काम में नहीं लग रहा था और मन से उस कृत्य का विचार जा नहीं रहा था। वे बार बार मन को यह समझाने में नाकाम सिद्ध हो रहे थे कि जो किया वो करना आवश्यक था। दोपहर बाद वो फ्लैट पर आ गये। कुछ आराम किया कुछ स्वाध्याय किया लेकिन सब निरर्थक । बाहर जाकर गैलरी में खड़े होकर आते जाते लोगो को देखने लगे। संध्या हो चली थी, उन्होंने अपना नित्यकर्म और संध्यावंदन किया, तभी दरवाजे की घंटी बजी ,उन्होंने उठकर दरवाजा खोला,सामने सेठजी का ड्राईवर टिफिन लेकर खड़ा था। टिफिन वही था,पंडित जी के मन में कुछ खटक गया। फिर भी उन्होंने आसन बिछाया ,जल का लोटा भरा और ईश्वर को हाथ जोड़कर टिफिन खोला,तो उस टिफिन में जहाँ कल बैंगन की सब्जी रखी थी वहां आज मालपुए रखे थे। पंडित जी के मस्तिष्क में शूकरों के मालपुए खाने का दृश्य तैरने लगा । उन्हें वह डिब्बा फिर से उस गन्दी नाली में ही पड़ा हुआ दिखाई देने लगा और अन्य भी कई चित्र विचित्र दृश्य उन्हें दिखाई देने लगे। वे तत्काल उठ खड़े हुए और आव देखा न ताव और खिड़की खोलकर मालपुए डिब्बे समेत नीचे फेंक दिए। खिड़की बंद कर तत्काल बाहर गए निकट के बाजार से एक टिफिन ख़रीदा और वापस फ्लैट पर आ गए। रात को जब ड्राईवर आया तो उसे पुराने टिफिन के दो डब्बे और नया टिफिन दे दिया। और उन्होंने कहा की "आज मेरे हाथ से एक डिब्बा पीछे गिर गया है इसलिए नया टिफिन लाया हूँ।" ड्राईवर बोला " अरे महाराज इतना कष्ट क्यों किया। सेठजी के घर पर कई टिफिन हैं क्या फर्क पड़ता है ।" पंडित जी ने कहा " मुझे बहुत फर्क पड़ता है । आप कृपया ये नया टिफिन ले जाइये। " " ठीक है जैसा आप कहे पंडित जी।" उसे विदा कर पंडित जी स्वाध्याय के लिए बैठ गए ,आज उन्होंने भोजन नहीं किया । शायद यही उनका प्रायश्चित था। पेट भी हल्का हो गया और मन भी।
2 Comments
Megha
4/8/2015 04:42:31 am
👍👍👍👍👌👌👌👌
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Kalpesh Wagh
4/8/2015 04:44:59 am
धन्यवाद
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AuthorA creation of Kalpesh Wagh & Aashish soni Archives
March 2017
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