स्वधर्म का ना मान किया ,
निज परम्परा का पालन ही धर्म के रथ पर होता था अपने घर का संचालन ही मूर्ति से आस्था डोल गयी शास्त्रों पर से विश्वास गया पत्थर वो बना कागज़ ये हुआ मन से ईश्वर का वास गया पश्चिम की ओर चले भागे संस्कारों के टूटे धागे उनको भी तो न पकड़ सके हम पीछे वो आगे आगे सब तिलक जनेऊ छूट गए बस भाग्य तभी से फ़ूट गए फिर मांस सुरा के सेवन से लगता ईश्वर भी रूठ गए न माया मिली न राम मिला न प्रसिद्धि न ही काम मिला जो गाँठ का था वो भी रीता सब खो कर ये अंजाम मिला अब मर्म की बात बताती है अरे ये पुरखों की थाती है ये जन्मान्तर से संचित है कवि वाणी ये समझाती ये राम कृष्ण की भूमि है ये धर्म ही सत्य सनातन है लाखों वर्षों में जो न डिगा अरे कुछ तो इसका कारण है ये भक्तिसुधा से सिंचित है ये प्रेमसुधा से रसमय है ये मर्यादा से रक्षित है ये राष्ट्रशक्ति से बलमय है अब धर्म वृक्ष परिपालन हो अब समय है इसके सिंचन का रत हो अभिमान के वर्धन का युत हो कर्त्तव्य अकिंचन का नभ् मंत्रो से उच्चारित हो वाणी गुणगान से भारित हो अपना सबसे श्रेयस्कर है सारे जग में ये प्रसारित हो अपना सर्वस्व धर्म को दें फिर इस से हम कुछ ले पाएं हम विश्व में एक उदहारण हों कोई ना फिर ये कह पाये की स्वधर्म का ना मान किया निज परंपरा का पालन ही धर्म के रथ पर होता था अपने घर का संचालन ही
5 Comments
पौरुष
27/2/2016 11:44:38 am
काफी अच्छा लिखा है !!
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fictionhindi
27/2/2016 11:46:02 am
बहुत धन्यवाद
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Prachi wagh
29/2/2016 08:48:53 am
Nicely written keep it up
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fictionhindi
29/2/2016 09:24:20 am
Thanks
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29/2/2016 09:38:15 am
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AuthorA creation of Kalpesh Wagh & Aashish soni Archives
March 2017
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