पिछले दशकों में देखने में आता है कि दुनिया में विकास के नए आयाम स्थापित होते जा रहे है। आर्थिक,वैज्ञानिक,सामाजिक आदि और भी विभिन्न भौतिक क्षेत्रों में मानव जाति का विकास हो रहा है। किन्तु देखने में यह भी आता है कि इस विकसित भौतिकता का भोग करने की या दूसरे तरीके से कहा जाये तो इसे पचाने की क्षमताये सीमित होती जा रही है। हर भौतिक विकास मनुष्यो के लिए एक नयी पराधीनता ..एक नयी दासता भी उत्पन्न कर देता है।
विकास को मानव जाति के आरम्भ से विचार में लाया जाये तो मानवीय प्रवृत्ति इस प्रकार की रही है कि अपने जीवन को सरल बनाने के लिए बाहरी भौतिक विकास की ही ओर ध्यान अधिक दिया जाये। जबकि जीवन को सरल बनाने का एक मौलिक और दिव्य विकल्प भी है। कई विद्वान् कहते है कि प्रत्येक मानव अपने आप में पूर्ण है । जीवन को सरल बनाने का उपाय बाहरी भौतिक विकास के अतिरिक्त स्वयं की क्षमताओ का विकास भी हो सकता था किन्तु बहिर्मुखी प्रवृति के कारण अपनी स्वंय की क्षमताओ के विकास की ओर साधारण मनुष्यो का ध्यान कम गया है। वर्तमान समय में जिस प्रकार से भौतिक विकास हो रहा है , उसी प्रकार मनुष्य की आतंरिक क्षमताओं का विकसित होना भी परम आवश्यक है अन्यथा उपभोग की क्षमताओं का निरंतर ह्रास होता चला जायेगा, जो कि परिलक्षित होना आरम्भ हो गया है। आंतरिक विकास से तात्पर्य यह है कि हम अपनी स्वयं की शारीरिक मानसिक तथा आध्यात्मिक क्षमताओं और शक्तियों का विकास करें। अपना ही सामर्थ्य(potential) बढ़ायें और लगातार “पूर्णता ,दिव्यता और संतुष्टि” सफलतापूर्वक अनुभव करने के लिए बढ़ते रहें। अपने भीतर का और बाहरी वस्तुओं का एक आदर्श अनुपात में विकास ही संतुलित और वास्तविक विकास है। आतंरिक क्षमताओं के विकास का उपाय भी आंतरिक ही है। हमारे धर्मग्रन्थ हमारे आंतरिक विकास का रास्ता बताते है। योग की एक परिभाषा है कि "अप्राप्त की प्राप्ति का नाम ही योग है" दूसरी परिभाषा यह भी है कि "संतुलन ही योग है".......विचार कीजिये। योग, ध्यान, प्राणायाम आदि के अतिरिक्त अनन्य भक्ति, अनासक्ति और निष्काम कर्मयोग का प्रयास ही उपाय प्रतीत होता है। संतुलित विकास का जो फल होगा वह भी पूर्ण होगा, भौतिकता का उपभोग भी सहज आनंद से हो सकेगा।
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AuthorA creation of Kalpesh Wagh & Aashish soni Archives
March 2017
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