उत्तर प्रदेश में अवैध बूचड़खानों के बंद होने से मांस व्यापारी हड़ताल पर चले गए हैं और सरकार की इस साहसिक पहल का विरोध कर रहे हैं। इसने शाकाहार और मांसाहार पर नयी बहस छेड़ दी है। भारत में मांसाहार का प्रचलन पिछले कई वर्षों में बढ़ता ही रहा है इसके कई कारण हैं किन्तु प्रमुख कारण जो वर्षो से हमारे मस्तिष्क में भरा जा रहा है कि मांसाहार , शाकाहार से ज्यादा पौष्टिक होता है। आइये इस बारे में हम तथ्यों पर गौर करें- भारतीय परंपरा में यह माना जाता है कि "जैसा खाएंगे अन्न, वैसा होगा मन" मांस सहजता से प्राप्त नहीं किया जाता क्योकि मांस सिर्फ मांस नहीं बल्कि किसी जीवित पशु के अंग उपांग होते हैं जिनसे वह साँस लेता है , चलता है , सोचता है , खाता है। उसे प्राप्त करने के लिये उसकी हत्या करनी होती है, इसके लिए पशुवत व्यवहार की आवश्यकता होती है और मानवता किसी की हत्या सिर्फ अपनी स्वाद तंत्रिकाओं की संतुष्टि के लिए नहीं कर सकती। अतः जिस भोजन की प्राप्ति में ही हिंसा है उस भोजन को खाने पर पुष्टता अवश्य आ सकती है किन्तु वो पुष्टता भी और अधिक हिंसा में ही लगेगी बजाय उत्पादक कार्यो के । असल बात भोजन में नहीं उसे प्राप्त करने के तरीके में ही निहित है । किसी जीव पर हिंसाकर प्राप्त मांस विध्वंसकारी सोच को ही बढ़ावा देगी । यह बात विश्वसनीय लगती है कि अगर जेल में बंद गंभीर अपराधों में लिप्त अपराधियो का एक अध्ययन किया जाये तो अधिकांशतः मांसाहारी ही होंगे। दूसरा तर्क जो मांसाहार के पक्ष में दिया जाता है कि पेड़ पौधों में भी जीवन होता है और उनसे भोजन प्राप्त करने में उनकी भी हत्या करनी होती है। इसका समाधान यह है कि भारतीय परंपरा ही यह मानती आई है कि पेड़-पौधों में भी जीवन होता है , जिसके लिए हमारा मज़ाक तक बनाया गया कि "भारतीय लोग पेड़ो और पशु पक्षियों की भी पूजा करते है ।" लेकिन आज विज्ञान भी यह बात समझ गया है कि पेड़-पौधों में भी हमारे सामान जीवन होता है और हमारी परंपरा इस बात का पूरा सम्मान करती है , कच्चे फल या हरे पेड़ काटने को भी जीव हत्या के सामान अपराध माना गया है। जब हम पौधों या पेड़ो से फल प्राप्त करते है तो वह फल अपना जीवन चक्र पूरा कर चुका होता है, इस प्रक्रिया में किसी की हत्या नहीं होती और हम फल खाकर उस पौधे की वृद्धि में सहायता ही देते है । इसके अतिरिक्त पौधों से भोजन प्राप्त करने में कम से कम हिंसा होती है , सभी जानते हैं कि चेतना के 3 स्तर होते हैं अवचेतन, चेतन और सुषुप्त। इसमें दो अवस्थाएं तो प्राणियों में होती है जिससे वे अनुभव करते है , लेकिन पेड़ पौधे चेतना की तीसरी अवस्था में होते हैं जिससे उन्हें पीड़ा अनुभव नहीं होटी है जैसा कि हमारे बाल या नाख़ून जो तंत्रिका तंत्र से नहीं जुड़े होते है और उन्हें काटने से हमें दर्द नहीं होता है। अन्य तर्क बताया जाता है कि दूध भी पशु से प्राप्त होता है तो ये भी मांसाहार ही है । हमने शुरू में ही कहा है कि बात शाकाहार या मांसाहार की नहीं , उसे कैसे प्राप्त किया जाय यह महत्वपूर्ण होता है । यदि गाय या अन्य दुधारू पशु को अपने बछड़े को दूध न पिलाने दिया जाये और बलपूर्वक दूध लिया जाये तो उस प्राप्त दूध में और मांसाहार में कोई अंतर नहीं होगा और इसीलिए गाय को माँ की संज्ञा दी है क्योंकि वह अपने बछड़े के साथ साथ हमें भी पर्याप्त दूध दे सकती है। आजकल एक नया शब्द सुन ने को मिल रहा है "वीगन" । अर्थात ऐसे लोग जो पशुओं से प्राप्त किसी भी भोजन को ग्रहण नहीं करते है जैसे दूध या दूध से बने पदार्थ और शहद। परंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिये की शाकाहारी भोजन दूध के बिना अधूरा है और प्रोटीन के लिए हम दूध और दालो पर निर्भर हैं अगर हम दूध और उनसे बने पदार्थ उपयोग नहीं लेते हैं तो न तो हम पूरी तरह से पोषित होंगे और पशुओं का अतिरिक्त दूध भी पशु और बछड़े दोनों के लिए घातक होगा। इसके अतिरिक्त अगर दुधारू पशुओं के दूध का उपयोग नहीं होगा तो हम अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें बूचड़खानों की तरफ ही धकेलेंगे। साथ ही यह बात भी प्रचारित की जायेगी कि शाकाहार पूर्ण पोषण नहीं है और हमें प्रोटीन हेल्थ सप्लीमेंट्स लेने को मजबूर किया जायेगा , आजकल टीवी पर लगातार यह बात विज्ञापनों के माध्यम से प्रचारित भी की जा रही है। अगर आज हम अध्ययन करे तो देखेंगे कि मांसाहार को प्राप्त करने में अधिक ऊर्जा और संसाधनों की आवश्यकता होती है । उन्हें प्राप्त करने और बनाने आदि में भी शाकाहार से कई गुना अधिक संसाधनों का अपव्यय होता है तो यह प्रकृति के संतुलन और ग्लोबल वार्मिंग के लिए भी उपयुक्त नहीं है। यदि हम तर्कपूर्ण ढंग से सोचें तो केवल जिव्हा के स्वाद के अतिरिक्त मांसाहार कुछ नहीं है और हमारा स्वार्थ और मानवता इतनी गिर गई है कि हम सिर्फ एक समय के भोजन के लिए किसी निर्दोष जीव की जिंदगी समाप्त करने में भी नही हिचक रहे हैं।
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समय को ठीक पहिये की भांति माने तो ऐसा नज़र आता है कि अभी यह पहिया उदारवाद से राष्ट्रवाद की ओर घूम रहा है ।अगर हम पूरी दुनिया में होते हुए परिवर्तनों की ओर ध्यान दें यह बात साबित होती जा रही है, पिछले कुछ वर्षों में विश्व राजनीति में यह परिवर्तन स्पष्ट होता जा रहा है जैसे रूस ,फ्रांस ,ऑस्ट्रेलिया आदि देशों में राष्ट्रवादी सरकारों का चुना जाना इसके बाद इंग्लैंड का यूरोपीय संघ से अलग हो जाना और अंततः अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप का राष्ट्रपति बनना । अगर हम इतिहास पर नजर डालें तो देखेंगे कि अगस्त 1945 में जापान पर गिराए बम , ना केवल द्वितीय विश्वयुद्ध को बल्कि राष्ट्रवाद को भी समाप्त कर दिया था और संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ साथ पूरी दुनिया उदारवाद की ओर चल पड़ी। तत्कालीन परिस्थितियों में प्रबल राष्ट्रवाद अप्रासंगिक हो गया था, संयुक्त राष्ट्र संघ बनने के बाद ब्रिटैन और अन्य देशों के ऊपर बहुत दबाव हो गया था कि वे अपने अपने उपनिवेशों को आज़ाद करे और उन पर से अपना नियंत्रण वापस ले । इस दौरान भारत के साथ कई एशियाई देशो को ब्रिटेन के शासन से आज़ादी मिली, इससे यह बात भी साबित होती है कि जिस ब्रिटैन ने इतने संघर्ष और आंदोलनों के बाद भी भारतीय कांग्रेस की डोमिनियन स्टेट की मांग तक नहीं मानी और एक दम से अपना पूरा नियंत्रण हटा लिया और अपना पूरा शासन शांतिपूर्ण ढंग से ऐसे नेताओ को सौप दिया जिन्हें उन्होंने खुद चुना था । उधर वक्त के साथ-साथ विश्वग्राम, सेकुलरवाद ,साम्यवाद आदि अवधारणाएं भी विकसित होती गई । किन्तु वर्तमान समय में साम्यवाद लगभग अप्रासंगिक हो गया है। लेकिन परिस्थितियां 9 /11 के हमले के बाद तेजी से बदली , जब कट्टरवाद के नश्तर ने उदारवाद की छाती लहूलुहान कर दी और पूरे विश्व में परिवर्तन की हवा दिखने लगी । लोग यह मानने लग गए कि कट्टरवाद का मुकाबला केवल राष्ट्रवाद कर सकता है और जिन दो देशों ने 1945 में उदारवाद के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, वही अमेरिका और ब्रिटेन (यूरोप) आज राष्ट्रवाद के अगुआ बन गए हैं जो एक संकेत है कि विश्व धीरे-धीरे नव राष्ट्रवाद की ओर जा रहा है। विश्व में होती हुई अशांति भी यही बता रही है , क्योकि संधि काल इतना शांत नहीं होता। भारत की परिस्थितियों की बात करें तो देखते हैं कि हमें उदारवाद के दौर में आजादी मिली और उसे ही हमने हमारा मुख्य सिद्धांत बनाए रखा । आजादी के बाद से भारत में राष्ट्रवाद अनुभव ही नहीं किया था लेकिन 2014 नरेंद्र मोदी की सरकार ने आकर भारत में राष्ट्रवाद और उदारवाद पर नयी बहस को शुरू कर दिया है और सही भी है, ये देश आज़ादी के बाद पहली बार राष्ट्रवाद का स्वाद चख रहा है जो कुछ लोगो को कड़वा भी लग सकता है, लेकिन बदली हुई परिस्थतिया देख कर यही लग रहा है कि देश का मन भी राष्ट्रवाद के साथ ही है। मोदी सरकार को मई 2014 में मिला स्प्ष्ट बहुमत जनमानस में हुए परिवर्तन की झलक दिखा रहा है, और उसके बाद हुए चुनाव में भी भाजपा को विजय मिली। ऐसा लगता है कि जिस तरह से दुनिया में राष्ट्रवाद की हवा चल रही है , नरेंद्र मोदी और डोनाल्ड ट्रम्प का चुना जाना तय या एक पूर्वनियोजित योजना का हिस्सा लगता है। इन्ही रुझानों को देखे तो ऐसा लगता है कि मोदी सरकार उप्र के चुनाव में लोकसभा का करिश्मा दोहरा सकती है , क्योकि अगर हम इन सब कारको पर नज़र डालें तो हम देखते है की आगामी यूपी चुनाव देश की दशा तय करने वाला है और देश और दुनिया ने राष्ट्रवाद को चुन लिया है तो ऐसा लगता है कि यूपी का चुनाव नरेंद्र मोदी को और अधिक मजबूती प्रदान करेगा। इसके अतिरिक्त बाकि सारे दल खुद को बड़े से बड़ा सेकुलरवादी और उदारवादी बताने में लगे है तो एक राष्ट्रवादी के रूप में मोदी का कोई विकल्प मौजूद नहीं है । पिछले वर्ष जेएनयू में अफजल गुरु की फांसी की बरसी पर हुए प्रदर्शन देश में सभी के ज़ेहन में जिंदा हैं और उनमें लगाए गए नारे "भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी" , "अफजल हम शर्मिंदा हैं तेरे कातिल जिंदा है "और आखिर "पाकिस्तान जिंदाबाद " , हम सभी के कानों में आज भी सुनाई देते हैं, उमर खालिद ने उस का नेतृत्व किया था। कल उसे रामजस कॉलेज में एक प्रोग्राम के लिए बुलाया गया था , जिसमें अलगाववाद पर उसे बोलना था लेकिन जेएनयू के बाहर और अंदर की दुनिया में बहुत बड़ा फर्क आ गया है जो कल उमर खालिद को अच्छे से महसूस हुआ होगा , जब एबीवीपी के प्रदर्शनकारियों ने यह कार्यक्रम नहीं होने दिया और उसका तीव्र विरोध किया । दोनों पक्षों में जमकर संघर्ष हुआ और पत्थरबाजी भी हुई लेकिन कितने आश्चर्य की बात है कि एक सप्ताह पहले जो पत्थरबाज कश्मीर में शांतिपूर्वक प्रदर्शनकारी कहे जा रहे थे , वहीं एबीवीपी कार्यकर्ता उग्र, हिंसक, बर्बर और न जाने क्या क्या कहे जा रहे हैं। एक सप्ताह में ही हमारे तथाकथित बुद्धिजीवीयो के लिए पत्थरबाजी शांतिपूर्वक से उग्र, हिंसात्मक और बर्बर हो गई। यही दोहरा रवैया संजय लीला भंसाली और तारिक फतेह के प्रकरणों में भी हुआ था। जब रानी पद्मिनी का गलत चित्रण करने पर राजपूत कार्यकर्ताओ ने संजय लीला भंसाली का विरोध किया तब राजपूत कार्यकर्ताओं को भी ऐसे ही हिंसक और असहिष्णु करार दिया गया था। इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला बताया था और पूरे देश में फिर से असहिष्णुता पर बात होने लगी थी, वही तारिक फतह जो की "फतह का फतवा "कार्यक्रम के एंकर है , उनका विरोध सिर्फ एक खबर बनकर रह गया । देश का तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग लगातार इस तरह के कार्यों को बढ़ावा और समर्थन देता आया है । वहीं जेनयू जैसे विश्विद्यालय इस तरह की मानसिकता की नर्सरी बने हुए हैं , जहाँ 30 से 35 वर्ष तक की उम्र के विद्यार्थी पढाई कम और देशविरोधी गतिविधियों के लिए ज्यादा जाने जाते हैं । आज मेकाले के वंशज जेनयू जैसी जगहों को अपनी प्रयोशालाये बनाये हुए हैं और भारतीय संस्कृति पर लगातार हमला करते आये हैं। नरेंद्र मोदी की सरकार से पहले कई पूर्ववर्ती सरकारो और ऐसी विचारधारा वाले बुद्धिजीवियों के बीच एक प्रकार से honeymoon period चल रहा था और इन्हें सरकार का पूरा समर्थन प्राप्त था , जो अब संघर्ष में बदल गया है । मोदी सरकार के बाद से इन लोगो द्वारा हर छोटी से छोटी बात पर सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया गया , चाहे वो असहिष्णुता को मुद्दा बनाकर पुरस्कार वापसी हुयी , रोहित वेमुला की आत्महत्या को मुद्दा बनाना हो , अख़लाक़ या और किसी कानून व्यवस्था से जुड़े मुद्दे को सांप्रदायिक रंग देना हो, कांग्रेस और अन्य सभी पार्टियों द्वारा उन्हें पूरा समर्थन दिया गया । अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को देश की सुरक्षा और अखंडता से भी ऊपर मान लिया गया है । इन लोगो को मीडिया के एक बड़े वर्ग का भी समर्थन प्राप्त है जो इनके देशविरोधी कृत्यों का हमेशा बचाव करता आया है जबकि इन लोगो द्वारा लगातार नक्सलियों और आतंकवादियों का समर्थन किया जाता रहा है। देश के सामने ऐसे लोगो की सच्चाई आना जरूरी है और ऐसे लोगो का समर्थन करना देश की एकता और अखंडता से समझौता करना है , देश को ये समझना होगा। सुबह-सुबह यह 8:30 - 9:00 बजे के लगभग इस यूनिवर्सिटी रोड पर बाइक दौड़ाने का मजा ही कुछ और है। ठंड के इन दिनों में एक तो ट्रैफिक कम रहता है और दूसरा इतनी चिकनी रोड शहर में और कहीं है नहीं । सड़क के आसपास लगे लिपटिस और दूसरे पेड़ भी इसे खूबसूरत बना देते हैं । बस ध्यान इतना रखना पड़ता है कि कोहरे की वजह से किसी टहलने वाले बूढ़े को आप समय से पहले भगवान के पास न पहुंचा दो ।
“अरे यह कौन जा रही है” आगे चलती एक पिंक स्कूटी पर मेरी नजर पड़ी। “यूनिवर्सिटी जाने वाले बहुत से यंगस्टर्स आते-जाते रहते हैं, पर इस गाड़ी को तो पहले कभी नहीं देखा , चलो देखते हैं।” मैंने पलक झपकते ही अपनी हार्ले को एक्सीलरेट किया और उसके बाजू में पहुंच गया। (जी हां हार्ले ! अब इतना भी चौंकने की जरूरत नहीं है, कहानी मैं सुना रहा हूं ना आपको तो मैं हार्ले क्या जेट भी उड़ा सकता हूं सड़क पर, आप बस चुपचाप पढ़ो ) “हाय , मायसेल्फ ऋषि ” मैंने इंट्रोडक्शन फेंका । ( मैं सोच रहा था कि इस कहानी में अपना नाम कृष रखूं या ऋषि रखूं , अच्छा हुआ कृषि ना हो गया..... हा हा हा....... सॉरी बेड जोक ) वाह क्या लड़की थी । जो नजारा पीछे से था , उससे कई गुना खूबसूरत आगे से था। उसने एक नजर मेरी तरफ देखा और स्कूटी की स्पीड बढ़ा दी , अब बेचारी स्कूटी 60 पे आकर भोंssssss भोंsssssss करने लगी । कोई हार्ले से कंपीटीशन होगा क्या ? अपन साथ के साथ ही थे । “नई आई हो यूनिवर्सिटी में .....” नो आंसर वो सामने देखकर गाड़ी चलाती रही । “वैसे मैं यहां यूनिवर्सिटी का प्रेसिडेंट हूं , वो भी इलेक्टेड, परसेंटेज से नहीं” (आप फिर उचके बीच में । मैंने यूनिवर्सिटी प्रेजिडेंट पर ही संतोष किया..... किया ना । वरना मैं देश का प्रधानमंत्री भी हो सकता था अपनी कहानी में । अब मत रोकना बीच में .... क्या करूं यूनिवर्सिटी प्रेजिडेंट हूं ना , तो थोड़ा एटीट्यूड भी है । बीच में रोकने वालों पर गुस्सा आ ही जाता है , खैर .....) उसने फिर कोई रिएक्शन नहीं दिया । “तो भूमि नाम है तुम्हारा ” ( मेरे सपनों में जो पहली लड़की आई जिससे मुझे सपनों में ही पहला प्यार हुआ था , असल में उसका नाम मैंने रखा था भूमि ) इस बार फर्स्ट टाइम उसने नहीं में गर्दन हिलाई । “तो श्रुति...” मैं उसके गर्दन हिलाने का इंतजार कर रहा था । दोनों गाड़ियां अब भी साथ ही चल रही थीं। जब कुछ देर हां-ना कैसी भी गर्दन ना हिलाई, मैं समझ गया। “अच्छाsssss..... तो श्रुति ही नाम है तुम्हारा, पहले ही बता देती । ” ( अब भगवान के लिए आप ये मत सोच लेना कि श्रुति उस दूसरी लड़की का नाम था जिसे मुझे सपनों में प्यार हुआ था...................................लेकिन.......... सच बात तो यही है ) “किस स्ट्रीम में हो यूनिवर्सिटी में ” मैंने फिर जवाब का इंतजार किया , समझ नहीं पाई बेचारी। “अरे सब्जेक्ट-सब्जेक्ट , कौन सा सब्जेक्ट है तुम्हारा ” तभी मोबाइल की रिंग बजने लगी, मैंने चलती गाड़ी पर ही अपना iphone 7 जेब से निकाला। उसने एक तिरछी नजर से मेरे फोन को देखा। मैं रुककर बात करने लगा । ( क्या कहा , ज्यादा हो गया ! ज्यादा हो गया .....कम हो गया...... हुआ ही नहीं , अरे आप को क्या लेना-देना है बस दूसरों के फटे में टांग अड़ाना है। हाँ- हाँ मेरे पास iphone 7 है । आsssह पेट में एक तरफ दर्द हुआ, अक्सर हो जाता है ......कोई दिक्कत नहीं है..... वो क्या है कि एक किडनी नहीं है ना इसलिए ) फोन पर बात खत्म हुई तो वह थोड़ी आगे निकल गई थी। लेकिन हार्ले के लिए क्या दूर और क्या पास , मैं फिर उसके बगल में पहुंच गया। “ वैसे मैं फॉर्मेसी स्ट्रीम से हूं..... सॉरी फार्मेसी सब्जेक्ट से” सामने वाले की समझ में भी तो आना चाहिए न । वो तब भी कुछ ना बोली। गूंगी थी शायद बेचारी ! जबसे तुषार कपूर को गूंगा बना देखा है ना , बहुत दया आती है मुझे गूंगे लोगों पर ........मगर क्या कर सकते है। ( एक ठंडी सांस छूट गई, साथ में धुआं भी... निकला यही मजा है ठंड का ) वो समझ तो गई थी कि लड़का है बहुत स्ट्रांग । सामने राइट साइड में यूनिवर्सिटी का गेट आ गया । “चलो बाकी यूनिवर्सिटी में ही रुक कर बात करते हैं ” मैं थोड़ी स्पीड बढ़ा कर आगे यूनिवर्सिटी में घुसा । हार्ले यू नो । गाड़ी रोक कर पीछे देखा तो ............ अरे यह क्या......... वो तो सीधे निकल गई , अरे! मतलब यूनिवर्सिटी में नहीं पढ़ती थी । ओssहोsssssss उसका बैकपैक दिख रहा था पीछे से, एक ठेंगे वाला हाथ बना था । उस पर लिखा था, “ ips coaching center , come to us for 100% success” भाड़ में गई सक्सेस, और आप क्या हंस रहे हो.... जाओ मनाओ वैलेंटाइन अपनी-अपनी वाली के साथ.............. मैं इस साल भी दिन भर कपल्स को पकड़-पकड़ कर पीटूंगा.......चलो रे लड़कों। “भाई वो... वो... मुझे कुछ काम था, आप चलो मैं थोड़ी देर में आता हूँ।” ................ कैसा लगा , comment ज़रूर करना और फॉर्म signup करना भूल मत जाना। समृद्धि
समृद्धि का अर्थ सामान्यतया धन धान्य की परिपूर्णता से लिया जाता है परंतु वास्तव में यह शब्द है “समवृद्धि” जो कि बोलने की सुविधा के विचार से कालांतर में समृद्धि हो गया। समवृद्धि का तात्पर्य हुआ धन, धान्य , सुख , वैभव तथा मनुष्य के समस्त आतंरिक एवं बाह्य गुणों सभी में समान रूप से वृद्धि होना। ऐश्वर्य ऐश्वर्य शब्द का अर्थ बहुत व्यापक है परंतु ये शब्द बहुत ही सीमित अर्थों में रूढ़ हो गया है। आमतौर पर ऐश्वर्य को अंग्रेजी के luxury शब्द का पर्याय माना जाता है परंतु यह भौतिक सुख- सुविधाओं से कहीं अधिक हैI जैसे सुन्दर से सौंदर्य होता है, मधु से माधुर्य होता है वैसे ही “ईश्वर से ऐश्वर्य” होता है। ईश्वर के समस्त भौतिक, अलौकिक और ईश्वरीय गुण जिसमें समाहित हैं वही ऐश्वर्य है और जिसने ईश्वर से तादात्म्य स्थापित कर उनके गुणों को आत्मसात किया है वही ऐश्वर्यशाली है। आज दीपावली के शुभ अवसर पर आपका जीवन सुख, समृद्धि और ऐश्वर्य से परिपूर्ण हो इसी मंगल कामना के साथ- शुभ दीपावली पिछले दशकों में देखने में आता है कि दुनिया में विकास के नए आयाम स्थापित होते जा रहे है। आर्थिक,वैज्ञानिक,सामाजिक आदि और भी विभिन्न भौतिक क्षेत्रों में मानव जाति का विकास हो रहा है। किन्तु देखने में यह भी आता है कि इस विकसित भौतिकता का भोग करने की या दूसरे तरीके से कहा जाये तो इसे पचाने की क्षमताये सीमित होती जा रही है। हर भौतिक विकास मनुष्यो के लिए एक नयी पराधीनता ..एक नयी दासता भी उत्पन्न कर देता है।
विकास को मानव जाति के आरम्भ से विचार में लाया जाये तो मानवीय प्रवृत्ति इस प्रकार की रही है कि अपने जीवन को सरल बनाने के लिए बाहरी भौतिक विकास की ही ओर ध्यान अधिक दिया जाये। जबकि जीवन को सरल बनाने का एक मौलिक और दिव्य विकल्प भी है। कई विद्वान् कहते है कि प्रत्येक मानव अपने आप में पूर्ण है । जीवन को सरल बनाने का उपाय बाहरी भौतिक विकास के अतिरिक्त स्वयं की क्षमताओ का विकास भी हो सकता था किन्तु बहिर्मुखी प्रवृति के कारण अपनी स्वंय की क्षमताओ के विकास की ओर साधारण मनुष्यो का ध्यान कम गया है। वर्तमान समय में जिस प्रकार से भौतिक विकास हो रहा है , उसी प्रकार मनुष्य की आतंरिक क्षमताओं का विकसित होना भी परम आवश्यक है अन्यथा उपभोग की क्षमताओं का निरंतर ह्रास होता चला जायेगा, जो कि परिलक्षित होना आरम्भ हो गया है। आंतरिक विकास से तात्पर्य यह है कि हम अपनी स्वयं की शारीरिक मानसिक तथा आध्यात्मिक क्षमताओं और शक्तियों का विकास करें। अपना ही सामर्थ्य(potential) बढ़ायें और लगातार “पूर्णता ,दिव्यता और संतुष्टि” सफलतापूर्वक अनुभव करने के लिए बढ़ते रहें। अपने भीतर का और बाहरी वस्तुओं का एक आदर्श अनुपात में विकास ही संतुलित और वास्तविक विकास है। आतंरिक क्षमताओं के विकास का उपाय भी आंतरिक ही है। हमारे धर्मग्रन्थ हमारे आंतरिक विकास का रास्ता बताते है। योग की एक परिभाषा है कि "अप्राप्त की प्राप्ति का नाम ही योग है" दूसरी परिभाषा यह भी है कि "संतुलन ही योग है".......विचार कीजिये। योग, ध्यान, प्राणायाम आदि के अतिरिक्त अनन्य भक्ति, अनासक्ति और निष्काम कर्मयोग का प्रयास ही उपाय प्रतीत होता है। संतुलित विकास का जो फल होगा वह भी पूर्ण होगा, भौतिकता का उपभोग भी सहज आनंद से हो सकेगा। सुबह
मैं चंद खामोश किरणों का, सुनहरा सा उजाला हूँ मुझे कुछ देर तक लेना, फिर कामों में खो जाना दोपहर मैं चंद खामोश लोगो की, बियाबाँ सी दोपहरी हूँ मुझमें कुछ देर थक लेना , फिर सांझों में खो जाना रात मैं चंद खामोश लब्ज़ों की, उनींदी सी कहानी हूँ मुझे कुछ देर पढ़ लेना, फिर ख्वाबों में खो जाना... आम तौर पर भजन व कीर्तन को एक ही मान लिया जाता है किन्तु इन दोनों शब्दों के अर्थ में अंतर है , दोनों की साहित्यिक विधा भिन्न है I
भजन - जैसा की नाम से स्पष्ट है की भजन वह पद्य रचना होती है जिसमे ईश्वर का नाम स्मरण किया जाता है अर्थात जिसमें भगवान का नाम भजा जाता है वही भजन है I यथा - श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारे , हे नाथ नारायण वासुदेव राधे-कृष्ण राधे-कृष्ण , राधे-राधे कृष्ण-कृष्ण कीर्तन - कीर्तन पद्य की वह विधा है जिसमें भगवान् की कीर्ति का वर्णन किया जाता है I इसमें अनेक कवियों ने स्वतंत्रता लेते हुए भगवान् की कीर्ति के वर्णन के साथ-साथ उनके जीवन की घटनाओं व प्रसंगों का भी चित्रण किया है I यथा - दीनन दुःख हरण देव , संतन हितकारी ध्रुव के सर छत्र देत , प्रह्लाद को उबार लेत भक्त हेत बांध्यो सेत , लंकपुरी जारी दीनन दुःख हरण देव , संतन हितकारी स्वधर्म का ना मान किया ,
निज परम्परा का पालन ही धर्म के रथ पर होता था अपने घर का संचालन ही मूर्ति से आस्था डोल गयी शास्त्रों पर से विश्वास गया पत्थर वो बना कागज़ ये हुआ मन से ईश्वर का वास गया पश्चिम की ओर चले भागे संस्कारों के टूटे धागे उनको भी तो न पकड़ सके हम पीछे वो आगे आगे सब तिलक जनेऊ छूट गए बस भाग्य तभी से फ़ूट गए फिर मांस सुरा के सेवन से लगता ईश्वर भी रूठ गए न माया मिली न राम मिला न प्रसिद्धि न ही काम मिला जो गाँठ का था वो भी रीता सब खो कर ये अंजाम मिला अब मर्म की बात बताती है अरे ये पुरखों की थाती है ये जन्मान्तर से संचित है कवि वाणी ये समझाती ये राम कृष्ण की भूमि है ये धर्म ही सत्य सनातन है लाखों वर्षों में जो न डिगा अरे कुछ तो इसका कारण है ये भक्तिसुधा से सिंचित है ये प्रेमसुधा से रसमय है ये मर्यादा से रक्षित है ये राष्ट्रशक्ति से बलमय है अब धर्म वृक्ष परिपालन हो अब समय है इसके सिंचन का रत हो अभिमान के वर्धन का युत हो कर्त्तव्य अकिंचन का नभ् मंत्रो से उच्चारित हो वाणी गुणगान से भारित हो अपना सबसे श्रेयस्कर है सारे जग में ये प्रसारित हो अपना सर्वस्व धर्म को दें फिर इस से हम कुछ ले पाएं हम विश्व में एक उदहारण हों कोई ना फिर ये कह पाये की स्वधर्म का ना मान किया निज परंपरा का पालन ही धर्म के रथ पर होता था अपने घर का संचालन ही हाथ की मेहँदी न बिखरी,
आँख का काजल सलामत ये भी कोई बात थी सखी पिया मिलन की रात थी केश सुबह तक बंधे थे फूल गजरे में गुंथे थे माथे की बिंदी यथावत ह्रदय को आघात थी सखी पिया मिलन की रात थी रूपसी थी मेरी काया छूते थे सब मेरी छाया नक्श से अपने नगर में मैं बड़ी विख्यात थी सखी पिया मिलन की रात थी तुणीर में नए तीर थे वार सब गंभीर थे आँख से आखेट में सखी मैं बड़ी निष्णात थी सखी पिया मिलन की रात थी गर्व नस नस में भरा था घट ये आकंठ रस भरा था रूप के अभिमान से सखी मैं सकारण व्याप्त थी सखी पिया मिलन की रात थी किन्तु अब अनछुअन की यातना थी मन ही मन बस प्रार्थना थी दो घडी को नयन मूंदे खोले तो प्रभात थी सखी पिया मिलन की रात थी देह का अभिमान है क्या उन बिना मेरा मान है क्या अकेलीे इक रात जैसे युगों का अभिशाप थी सखी पिया मिलन की रात थी प्रीत का जब अभाव जागा समर्पण का भाव जागा मैं विरहिणी रात भर की उन चरणों में प्रणिपात थी सखी पिया मिलन की रात थी हाथ काँधे पर धरा फिर उठा मुझको उर भरा फिर नयन से निष्पाप बहते अश्रुओं का प्रपात थी सखी पिया मिलन की रात थी |
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March 2017
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